उतर:- आजकल धर्म को लोग बड़े विचित्र रूप से देखने लगे हैं।हर किसी ने अपनी सुविधानुसार व बुद्धि अनुसार इसकी अपनी ही व्याख्या गढ़ ली है।जो कि वास्तविक आधार लिए नहीं है। आमतौर पर अपनी आस्था की पद्धति या उसके विभिन्न पहलुओं की व्याख्या करने वाले विद्वान् भी इस सरल से अभ्यास को जटिल ही बनाए जा रहे हैं। यहां आज यह एक अभिव्यक्ति का सशक्त व संवेदनशील मुद्दा बनाया जा रहा है वहीं यह अपनी वास्तविक आधार खोता जा रहा है। (क्यूंकि इस में काल के अनुसार नवीनता की बहुत गुंजाइश है।)मैं किसी को व्यक्तिगत रूप से दोषी नहीं मानता क्योंकि हर किसी को अपना पक्ष रखने की स्वतंत्रता है वहीं अपनी जानकारी व विवेक के आधार पर अपनी राय रखने का भी अधिकार है। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि धर्म मात्र आस्था विश्वास की अपनाई जाने वाली कोई पद्धति मात्र नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से न्यायसंगत कर्मों की न्यायिक व्यवस्था है। अगर मैं इसे किसी अन्य रूप से कहूं तो हमारी श्रृद्धा व इमानदारी से किया गया आचरण जो शत-प्रतिशत हमारे कर्त्तव्यों को न्यायपूर्ण ढंग से व जो काल, स्थान, स्थिति में आवश्यक हो व किसी का किंचित भी अहित