उतर:- आजकल धर्म को लोग बड़े विचित्र रूप से देखने लगे हैं।हर किसी ने अपनी सुविधानुसार व बुद्धि अनुसार इसकी अपनी ही व्याख्या गढ़ ली है।जो कि वास्तविक आधार लिए नहीं है। आमतौर पर अपनी आस्था की पद्धति या उसके विभिन्न पहलुओं की व्याख्या करने वाले विद्वान् भी इस सरल से अभ्यास को जटिल ही बनाए जा रहे हैं। यहां आज यह एक अभिव्यक्ति का सशक्त व संवेदनशील मुद्दा बनाया जा रहा है वहीं यह अपनी वास्तविक आधार खोता जा रहा है। (क्यूंकि इस में काल के अनुसार नवीनता की बहुत गुंजाइश है।)मैं किसी को व्यक्तिगत रूप से दोषी नहीं मानता क्योंकि हर किसी को अपना पक्ष रखने की स्वतंत्रता है वहीं अपनी जानकारी व विवेक के आधार पर अपनी राय रखने का भी अधिकार है।
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि धर्म मात्र आस्था विश्वास की अपनाई जाने वाली कोई पद्धति मात्र नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से न्यायसंगत कर्मों की न्यायिक व्यवस्था है। अगर मैं इसे किसी अन्य रूप से कहूं तो हमारी श्रृद्धा व इमानदारी से किया गया आचरण जो शत-प्रतिशत हमारे कर्त्तव्यों को न्यायपूर्ण ढंग से व जो काल, स्थान, स्थिति में आवश्यक हो व किसी का किंचित भी अहित न करने वाला हो वही धर्म है।। प्यासे को पानी पिलाना या भूखे को भोजन कराना क्या धर्म नहीं, अतः जो सत्य सा उज्जवल हो वही धर्म है न कि कोई मतानुसार कोई पद्धति अथवा मान्यता।। हालांकि मैं जानता हूं कि मेरे मत से सहमत होने वाले लोगों की तादाद कम है या शायद मेरे से सहमत लोगों का नजरिया भी भिन्न हो परन्तु मेरा विवेक तो यही कहता है। न्यायिक व्यवहार ही धर्म है।आप जरा किसी से पुछे कि आपका धर्म क्या है तो वो तुरंत कह देगा हिंदू, सिक्ख ,ईसाई, मुस्लिम, पारसी, इत्यादि इत्यादि। क्या यही सत्य है , नहीं ।यह कत्ई सत्य नहीं है क्योंकि यह केवल एक शब्द नहीं है जो आपके जीवन की व्याख्या कर दे । यह तो आपके जीवन का आधार है।यह सत्य सनातन न्यायिक व व्यवस्थित आचरण या व्यवहार है जिसका एकमात्र उद्देश्य सबका हित जो जो इससे जुड़े हैं। ,इससे कम कुछ भी नहीं। आपके जीवन में अनेक उदाहरण होंगे जो आपके श्रेष्ठ व्यवहार के कारण आपको आत्मसंतुष्टि देते होंगे, वो भी कब जब आपने किसी अन्य को अपने कार्य की पूर्ति करके प्रभावित किया हो।और आप देखें कि क्या यह किसी पद्धति विशेष के कारण है आपका उत्तर होगा कदापि नहीं। क्यूंकि यह सीधे सीधे आपके व्यक्तिगत अनुभव व मनोदशा को प्रर्दशित करने ,आपकी परिस्थितियों के अनुसार आपके द्वारा आपके न्यायिक आचरण की कसोटी है जिसपर आपकी अंतर्रात्मा आपको संतुष्टि प्रदान करें व इससे समाज का हित परिलक्षित हो। यह कोई दिखावे की पद्धति है हि नहीं। क्यूंकि यह आपके विभिन्न संबंधों की उनके उनसे अपेक्षित संस्कारों की प्रतिपूर्ति की पूंजी है जो आप अपनी इच्छा अनुसार लुटाते हैं और संतुष्ट होते हैं। आपके जितने जिनसे संबंध है उतने ही आपके धर्म है , उदाहरणार्थ, पिता-पुत्र, पति-पत्नी,भाई -बहन माता-पिता, गुरु -शिष्य, राजा- प्रजा ,चिकित्सक-रोगी, मानव-मानव, मानव- प्रकृति,वो अन्य जीवों से संबंधिता, मानव-पर्यावरण, आदि आदि। यहां ज़रा गौर करें तो आप शायद और अच्छे से समझ सकें। जैसे मान लीजिए एक चिकित्सक के सामने उसका मरीज़ है जिसका इलाज किया जाना है तो यहां चिकित्सक का धर्म क्या है , हिंदू सिक्ख ईसाई मुस्लिम या उसका कर्म अर्थात इलाज। ऐसे ही आप अन्य स्थितियों में उतार कर देखें कि यदि राजा से पूछे कि उसका धर्म क्या है तो क्या उसे उपरोक्त उतर देने चाहिए अथवा उसकी प्रजा के प्रति अपेक्षित कर्म,या उसके कर्त्तव्य आदि, तो आप देखें तो पाएंगे कि धर्म वास्तव में कर्म से परिलक्षित होता है ।शक्ति पंथ विशेष की मान्यताओं से नहीं। अब आप बताएं कि इसमें हिंदू, ईसाई, मुस्लिम या पारसी यह सब कहा से आया वो उन समुदायों विशेष से क्या धर्म का आचरण बदल गया मानवता का जो दायित्व किसी प्राणी या वनस्पति से जो अपेक्षा एक से हैं वहीं अन्य से भी है अतः यदि हम तर्कसंगत बात करें व मुक्त बुद्धि से निर्णय लें तो जो हम धर्म की व्याख्या अभी तक करते आए हैं या कर रहे हैं क्या वह संकुचित नहीं लगती। यही हमारी परिपक्व सोच व परिकृषत मानसिकता का आधार है, हमारे नैतिक मूल्यों को स्थापित करने का एक न्यूनतम जरिया है जिसका वास्त्विक उद्देश्य तभी फलीभूत होगा यदि ये स्वयं की संतुष्टि के साथ साथ अन्यों के कल्याण से भी जुड़ा हो।
अब बात करें इसके महत्व की तो स्पष्ट शब्दों में कहें तो "अयोग्य को योग्य बनाने,अक्षम को संक्षम बनाने की संतुलित प्रवृत्ति को समर्थन करने की कोशिश ही धर्म है।" इतना ही नहीं अपने को ज्ञान से आबद् करना, उसका विस्तार करना व व्यापक रूप से उसको अन्यों को लाभान्वित करने को तत्पर रहने के नैतिक आधार पर व हमारे सनातन परंपरा का निर्वहन करते हुए हमारी सोच के अनुसार अच्छे व्यवहार की वजह से जो अन्य संबद्ध रिश्तों के खूबसूरत तरीके से निभाने का माध्यम है जिसमें सभी का कल्याण हो वही धर्म है।न कि किन्हीं मान्यताओं के मकड़जाल में उलझे रहना व उन्हीं का सर्मथन करते रहना।(याद रहे यदि इसमें लचीलापन नहीं तो यह जड है!,) और।यह आपको बिलकुल भी सीमित नहीं करता बल्कि यह तो आपकी स्वतंत्रता को असीमित करता है। ताकि आप मुक्त भाव से न्यायसंगत निर्णय लेकर समाज को राह दिखाए। इसमें नवीनता सदैव रहनी चाहिए अर्थात ये लचीलापन लिए हो, क्यूं , क्योंकि जो अपेक्षा किसी वयस्क से हो क्या हम वो किशोर या नवजात से कर सकते हैं।जैसे आज के संदर्भ से प्राचीन काल तक नजर डालें तो। अबुल कलाम आजाद,लाल बहादुर शास्त्री, महात्मा गांधी, जैसे राजनीतिक महात्मा बुद्ध, महावीर जैन,व अन्य आध्यात्मिक गुरु आदि इनके उदाहरण है।एक पक्ष और ,,धर्म कोमल ही नहीं बल्कि कठोर भी है। यहां ये कल्याण करने वालों को सम्मानित करने को प्रोत्साहित करता है तो अत्याचारी को दंडित करने की भी संस्तुति करता है। अतः यदि राम राज्य में हम न्याय की दुहाई देते हैं तो वहीं एक अनैतिक कृत्य के लिए रावण को दंडित करने को भी गलत नहीं ठहराते तो जान ले कि धर्म सरल व न्यायपूर्ण व्यवहार है जो अन्य को सेवित करने से जुड़ा है। वो सावधानी से आपके कर्त्तव्यों को न्यायपूर्ण ढंग से निभाने का माध्यम है
स्नेह भरी विचारों की इस श्रृंखला में अपने आलोचनात्मक या सर्मथन का पुट अवश्य मिलाएं।
विवेचक
संदीप शर्मा
(श्रीमद्भागवत गीता उपनिषद)
देवभूमि देहरादून उत्तराखंड।।
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