शरीर के बारे में श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ये ज्ञान क्षेत्र व श्रेत्रज्ञ का है। यहां क्षेत्र को शरीर कहा है वह इसके जानकार को क्षेत्रज्ञ। अतः पांच भौतिक तत्वों अग्नि,वायु जल,आकाश (जिसे अंतरिक्ष भी कहते हैं) ,व भूमि, से निर्मित ये परिकृषत स्वचालित व जटिल उपकरण जो आपको मिला है इसके पीछे एक गूढ़ उद्देश्य है।यह मात्र दो अणुओं (अंडाणु व शुक्राणु) के मेल से आरंभ होकर एक उत्कृष्ट यंत्र में विकसित होता है ताकि आपके होने की सार्थकता परिपूर्ण हो।ये इन्हीं पंच तत्वों से मिलकर बनता है, इन्हीं तत्वों से पोषित होता है वह इन्हीं तत्वों में विलीन हो जाता है
यह आपके सत्ताशील होने की निशानी है आपके चैतन्य होने का प्रमाण है। और यह तभी सम्भव है जब इसकेे पीछे एक असीम आनन्द का कारण हो। वास्तव में यह जीव का निवास स्थान है यहां से जीवन की समस्त गतिविधियों को पूरा करने का प्रयास जीव करता है। आपके चैतन्य आत्मा जब किसी इच्छा को पूर्ण करने की कामना करता है तो उसे पूरा करने हेतु जो पहली आवश्यकता होती है वो शरीर ही है। यही जीव या प्राणी मात्र के कारण कार्यों को पूरा करने का उपकरण है।जब आत्मा की कामना जागृत होती है अर्थात वो कोई इच्छाशक्ति से कुछ करने को प्रेरित होती है तो उसे फलीभूत करने का माध्यम यह भोतिक शरीर बनता है। यह कैसा होगा इसके पीछे उस आत्मा या जीव के उद्देश्य तय करते हैं।यह अति सूक्ष्म से लेकर विशालकाय जैसे विषाणु से लेकर विशालकाय व्हेल मछली तक के आकार का हो सकता है। इतना ही नहीं ये उन सब साज-सज्जा से युक्त होता है जिससे आपको आपकी समस्त गतिविधियों को पूरा करने में मदद मिले। अब आप देखें तो कुछ कुछ तस्वीर आप को अवश्य स्पष्ट हुई होगी कि शरीर क्या है।यह आत्मा के प्रकटीकरण का जरिया है जिससे उसके उद्देश्य अंजाम तक पहुंचेंगे।
शरीर की आयु की यदि बात करें तो यह भी तय आपके अर्थात जीव के कामनाऔ के उद्देश्य पर निर्भर है। यदि वह अधिकतम उद्देश्य के साथ आया है तो अधिक आयु यदि कम आयु है तो उसके होने के उद्देश्य भी अल्प होंगे। कुछ मनीषियों का मत है कि जीव के भौतिक शरीर की आयु उसके संस्कारों पर निहित है यदि संस्कार चार दिन के है तो आयु भी चार दिन की होगी यदि संस्कार ज्यादा है तो आयु भी अधिक।
अतः इतना तो स्पष्ट है कि आत्मा का निवास भौतिक शरीर ही है।वो यह स्वचालित व समस्त सुख सुविधाओं के आनंद लेने व दुःख आदि को भोगने का केंद्र है।वो ये सब उसके संग्रहित प्रारब्ध पर निर्भर है इसके सकारात्मक व नकरात्मक प्रभाव की भी बात करें तो यह चूंकि एक उपकरण है वह स्वाचालित है जोकि वैज्ञानिकता लिए है तो इसके प्रभाव भी इसके विज्ञान के अन्य उपकरणों की भांति इसके प्रयोग पर निर्भर है जैसी पावनता व धृतता से आप इस का उपयोग करेंगे यह आपको वैसे हि परिणाम देगा क्यूंकि है तो यह एक उपकरण ही।याद रखें कि यह मात्र सुख-सुविधाओं के उपभोग हेतु ही नहीं आपके भावी शरीरों की भूमिका भी तय करता है अतः इसके उत्थान को भी आप इसे सद्गुणों सद्विचारों वह सत्कर्मों से पोषित कर और इसके होने की सार्थकता का परिपूर्ण लाभ उठाएं। क्यूंकि कभी कभी अंत्यंत अंतहीन प्रतीक्षा करनी पड़ती है जीव को उसके प्राबध को भोगने की। अतः इसके बाह्य रूप को यहां संतुलित आहार व योगिक क्रियाऔ द्वारा इसका ख्याल रखें वहीं सद्गुणों व सद्विचारों वह सत्कर्मों से इसका भीतरी विकास करें।
आप जान लें कि आत्मा एक शरीर का चुनाव यूं ही नहीं कर लेता बल्कि विशुद्ध व वैज्ञानिक दृष्टि से परख कर ही वो इसमें प्रवेश करता है। सबसे पहले वो अपने प्रकट होने के कारण को मध्य नज़र रखते हुए बाह्य परिवेश तलाशता है तत्पश्चात वैसी मानसिकता वाला जोडा ढूंढता है यहां उसके कारण उद्देश्य को पूरा करने में मदद मिले वो अंत में वो आकार प्रकार आदिकी आवश्यकता अनुसार किसी शरीर में प्रवेश करता है। और इतना ही नहीं आरंभ में ही यहां कहीं उसे अनुभूति होती है कि यहां उसके निर्धारित उद्देश्य परिपूर्ण होने में संदेह है तो वो शरीर छोड़ने का विकल्प भी रखता है। इसीलिए आप देखें कि बच्चे की कपाल पूरी वयस्क की भांति नहीं होती बल्कि कोमल व एक तरह से कहें तो खुली होती है ताकि आत्मा उस शरीर को आवश्यकता पड़ने पर आरंभ में ही छोड़ सके।वो सनातन परंपरा में अंत काल में भी यही अंतिम क्रिया कपाल क्रिया की जाती है ताकि यदि शरीर में किंचित भी प्राण (क्यूंकि यदि आप प्राणों की भी बात करें तो प्राण कई प्रकार के होते हैं जिनकी बात हम किसी अन्य लेख में करेंगे।) तो उन्हें मुक्त कर दिया जाए।। अतः आत्मा का शरीर में प्रवेश व निकास का स्थान यहां कपाल है जिसे मणीषियो ने ब्रहमरध्रं की संज्ञा दी है। अतः बुद्धिजीवियों ने सदैव ही शरीर के सदुपयोग की बात कही है ताकि इसके श्रेष्ठतम परिणाम परिलक्षित हो और उसके लिए ढेरों किस्से कहानियों व किंवदंतियों से उन्होंने समझाने का प्रयास किया है अतः आप इसके महत्व को देखते हुए बिना देर किए इसके उत्थान में जुट जाएं । क्यूंकि आपको यदि आध्यात्मिक लाभ न भी हुआ तो चिकित्सीय लाभ तो अवश्य होगा।
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संदीप शर्मा।
(विवेचक श्रीमद्भागवत गीता उपनिषद)
देवभूमि देहरादून उत्तराखंड।।
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