बेशुमार किस्म का बेशरम हू मै,
टूटता हू,हर बार ,कई बार ,फिर भी मै,
फिर भी मुस्करा देता हू मै ।
पूछो न कितना बेगैरत हू मै,
खा कर चोट भी अपनो से ,अच्छी तरह,
उनके फिर भी काम संवार आता हू मै,
कहते सब मूर्ख हू मै,
यह सब कैसे कर कर लेता हू मै।
अब क्या बताऊ सबको मै,
किश्तो मे जीने की ख्वाहिश, से,
दुख भरी खाली सी अजमाईश, से,
सब की बना कर पुडियाॅ ,मै,
निगल जाता हू ज़हर की तरह ,सब मै।
जोकि जानता हू कि मुमकिन नही ,
खुश कर दे कोई मुझको यहां।
सब बैठे है अपने फायदो को,
देगा कौन मुझे फिर नफ़ा यहां।
बस जीना है पाकर के यही ,
जो रखना है रिश्ता कोई जिंदा यहां।(2)
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Originally Scripted by ,
Sandeep Sharma
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Jai shree Krishna g.
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