दिखती है कितनी निखरी,
कितनी संवरी,
बाहरी दुनिया,
जबकि अंदर शोर बहुत है ,
सुन्दर भले है यह बाहरी दुनियां।
अंदर कर रहा किलोले,
भीतर का अशांत अन्तर्मन,
पर दिखा रहा बाहर से ,
उज्वल, सब है, लेकिन भीतर सूनापन।
है न अविश्वसनीय पर सच्ची है ,
यह स्थिति जो छिपती दिखती ,है।
छिपा कर कितने अंतरद्वंद,
भीतर गहरे घाव छिपाए
हॅस रहा है कैसे अंतर्मन।
पानी है जो बाहरी खुशियां,भीतर का मन करो ,
उज्जवल ध्वल ,
देकर खुशिया, पाओ खुशिया,
ताकि हो नयन सजल।
खुद को खुद ही रखो पवित्र,
रखो अपना ऊंचा चरित्र,
कहना मुझे जो फिर न संवरे,
मन की सब तुम्हारी खुशियां,
रंगीन होगी सब की सब ,
बाहर भीतर की तुम्हारी दुनियां।
।¤¤¤¤¤¤¤।
जय श्रीकृष्ण मित्रगण।
संदीप शर्मा।( देहरादून से।)
Comments
Post a Comment