जय श्रीकृष्ण।
साथियो ,मुझे खुशी के साथ साथ अपार हर्ष व प्यार का एहसास हो रहा है कि आप को मेरे विवेचनात्मक विचार। कृष्ण कृपा से भा रहे है।
आदरणीय गण, यह सब कृष्ण कृपा है व उनका आशीर्वाद है,वो चाहते है कि जन जन ये जाने कि कैसे वो स्वयं से अवमुक्त हो क्योकि उसके बंधन बाह्य नही बल्कि भीतरी है।।हम कहते है ईश्वर हमे मुक्ति दे ।है न, पर विस्मयपूर्वक बात यह है साथियो कि ईश्वर तो स्वयं यही चाहता है ,और हम उसमे स्वयं ही बाधक है।जो हमे मुक्त करना चाहता है ,हम उससे ही मांग रहे है ,वही पर फिर बाधा कहा है।समझे बाधा उधर से नही इधर के ,हमारे प्रयास मे है।हमारे प्रयास से ही यह फली भूत होगे ।कैसे आओ जाने।
इसी प्रयास मे हम आज मंथन करते है चार वर्णो का जो शास्त्र मे बताए है ।क्या संकेत है आप जाने।
जय श्रीकृष्ण जी समझने मे सहायक हो।
आइए जाने स्वयं को जो हम जीव है यानि हमारा आत्मा के आस्तित्व मे साकार होना।ही जीवंत जीव की स्थिति है।आप को पता नही हम कौन है? इसकी विवेचना फिर करेगे।अभी तो हमारे सामने प्रस्तुत प्रश्न है,चार वर्ण असल मे कौन से है ,व ,क्या है।तो माननीय यही आज की चर्चा का विषय है।
आप विद्वान है व यह जानते है ,शास्त्रोक्त चार वर्ण क्रमशः शुद्र, वैश्य, क्षत्रीय व ब्राह्मण का उल्लेख है।
तो देखे जब जीव आस्तित्व मे आया तो कौन जानता है ,कितनी यात्रा कर किस उदेश्य से आया है।ओर जब आया तो उसकी स्थिति क्या है।बौद्धिक कौशल विकास व उदेश्य की सामर्थ्य क्या है ? यह जानना,व फिर उसका वहा से ओर उत्थान ही हमारा परम उदेश्य होना चाहिए। और जब हम ऐसा करेगे तो जीव की स्थिति का विकास होगा।
यही है हमारे जन्म का उदेश्य।
तो आइए आरंभ करे
अब देखे जब पैदाइश हुई।तो क्या जानते थे ,क्या कर सकते थे, क्या खा सकते थे ।आप समझते ही है। यह स्थिति एक तरह से शुद्र की सी है।
तो दोस्तो यह वो अवस्था थी जिसमे हम असमर्थ थे एक तो शारिरिक रूप से दुसरे बौद्धिक रूप से भी।
फिर धीरे धीरे जैसे इन दोनो का विकास होने लगा संस्कार हमारे उस और ले जाने लगे।यही से संभलना है।यही से गति लेनी है अब समय आया कि हम चलने फिरने लगे,समझ विकसित हुई स्वीकार करना ।व अस्वीकार करने की जिद्द होने लगी,यह स्तर बढ गया, यानि वैश्य श्रेणी मे आ गए। यानि कर्म प्रधान होने लगे बौद्धिक कौशल निखारने को प्रयास हुए, यह दुसरा स्तर आया।
थोडा और बढे हुए अब तक पढ़ाई लिखाई हो चुकी है आदते पक चुकी है जीवन मे कुछ हासिल कर लिया है। व जितने प्रयास किए वहा तक पहुंच गए। पर एक बात यहा विचित्र हुई कि हमने विश्लेषण करना आरंभ कर दिया जो तुलनात्मक रूप से कम या ज्यादा समझ आने लगा।यहा देखना यह है कि यह विश्लेषण अपना भी हो रहा है या दूसरो का ही कर रहे है ।यह महत्वपूर्ण है यदि स्वय का है तो स्तर बढ जाएगा ,अन्यथा वही अटके रहोगे वैश्यके स्तर तक।
अब और बढे हुए जीवन के तजुर्बे हुए। वहा से कितना सीखा क्या सुधार किया व अम्ल मे कितना लाए।यही महत्वपूर्ण है।क्योकि अमूमन होता यह है कि जान तो जाते है पर स्वयं पर लागू नही करते कारण बाध्य कौन करता है ,कोई बाह्य शक्ति तो मै कहूगा नही यह इंद्रिय के जाल से निकलने की असफलता ही बाधक है।यदि यहा इन इंद्रिय को संयमित कर आगे बढे तो आप क्षत्रीय हो गए। अन्यथा पिछला स्तर ही।अब तीसरे से आगे वयानि चौथा स्तर होने का अंतिम प्रयास यही तक है ।
तो दोस्तो यह तो जीवन काल की आयु के हिसाब से स्तर बताए जो क्रमशः वही चार वर्ण है शुद्र से ब्राह्मणत्व।
पर खेद यह होता है कि यहा कोई भी दूसरे से तीसरे वर्ण तक मुश्किल से ही पहुंच पाता है।
अब आइए आचरण व व्यवहार से समझे।
तो जैसे आपका आचरण या व्यवहार होगा वैसे आपके स्तर होगे।
आपको अभी तक मैने यह नही बताया कि आप जीवन मे यह जो चार वर्ण के करण कारण या भंवर है ,(इसमे एक चीज अच्छी तरह से जान लो कि यह) वो व्यक्तिगत स्थिति है हर जीव की ।
आप यह भूल कदापि न कर बैठना कि आप ब्राह्मण के घर पैदा हुए तो ब्राह्मण हो गए। या शुद्र के घर पैदा हुए तो शुद्र है।यदि एसा होता तो क्या आत्मदेव के यहा धुंधुकारी पैदा होता।या गोकर्ण गाए से पैदा होता।या जालंधर तो साक्षात शिव की उपज थी सो कर्म निर्धारित करते है हमारे स्तर तो पहले तो यह समझ ले किसी जाति या कुल अथवा परिवार मे पैदा होना आपका वर्ण निर्धारित व निश्चित नही करता बल्कि आपका आचरण व व्यवहार, आपकी खान-पान से लेकर बोलचाल, व अन्य आते बताती है कि आप किस वर्ण यानि स्तर के जीव है।पौंगा पंडित विद्वान तो कह सकते है कि आप ब्राह्मण कुल मे पैदा हुए है तो आप पंडित या विद्वान या ब्राह्मण हो गए। पर वैदिक समझ रखने वाला विद्वान नही।खैर अब यह आप समझ ले कि आप ही शुद्र है आपने ही वैश्य होना है व क्षत्रीय होना है ,इतना भी कर लिया तो ब्राह्मण होना दूर नही।
तो यह हर जीव की यात्रा के आचरण पर निर्भर है कि वो इस यात्रा मे कहा उतर जाता है व कहा गति पकड़ा है व शिथिल होता है व कहा मोक्ष या मुक्त हो जाता है।कभी कभार तो कोई कोई एक स्तर से दूसरे मे भी नही पहुंचता।याद रहे कारण आप स्वय ही है।ईश्वर या सितारे नही।भाग्य वाग्य कुछ नही।बेकार की बाते है यह सब।
जी बडी जिम्मेवारी से कह रहा हू।
तो देखे अब आप पहले इनके चारो के व्यवहार या आचरण को देखे कि आप कौन हो कैसा व्यवहार आपका है वही आपका स्तर है वही से आपको प्रयास करना है।
शुद्र:-:
तो पहले शुद्र की बात करे आमतौर पर यही है हम सब ।आलसी,प्रमादी,,नकरात्मक,गरीब, दरिद्र अधार्मिक भयभीत, व इर्ष्या से युक्त।
दूसरो के काम मे रोडे अटकाने वाले।अकारण जलन व पीड़ा से पीड़ित। इन अपराध के कारण, वैसी विचार धारा से युक्त। आदि आदि।
और भी नीच कर्म सब शुद्र की परिभाषा है।
आप जानते है जो आलसी होगा वो काम वाम तो करेगा नही तभी तो गरीब है दरिद्र है। यू ही कि उठने का प्रयास तक भी नही।
वैश्य:-:
अब देखे वैश्य वो है जो व्यापारिक विचार धारा समझ गया है ।अर्थात लाभ देखता है कि यदि यह कर लूगा तो फायदा होगा तो यह कर लेता हू।तो भले ही लाभ उदेश्य है पर यहा प्रयास आरंभ हो गए, यानि एक स्तर बढ गए। तो आप शुद्र से वैश्य हो गए। अब चूँकि लाभ और दिख रहे है तो और प्रयास करने लगे व जितने प्रयास बढते जाएगे उतने ही हम लाभान्वित होते जाएंगे। और यह सबसे महत्वपूर्ण कडी है आपको यहां कभी संतुष्ट नही होना है कयूकि यह आपके उत्तरोत्तर स्तरकी वृध्दि हेतू आवश्यक है।
(एक बात ये व्यापार वो वाला नही है जो दुकान या सामान बेचने का है।)यहा आचरण की बात कर रहे है।यह ध्यान रहे।अब आगे।अब आपको लालच देगे कि व्रत करो ईश्वर प्रसन्न होते है यह मिल जाएगा वो भी मिलेगा तो लालच दिया जा रहा है अब देखो ऑ यदि लालच न होगा तो आप क्या आलस त्यागोगे।बने रहोगेषन आलसी के आलसी तो यू लालच दिया जा रहा है और यह गलत नही है।
क्षत्रीय:-:
यह तीसरा स्तर है जीव का यानि हमारा।
क्षत्रीय यानि सुरक्षात्मक या रक्षा करने मे समर्थ होना तो सुरक्षित भाई किससे यह समझो,तो उत्तर है आचरण व व्यवहार से।यानि लडाई भी अपने से अपनी ही लडाई है । खूद से,क्यू क्योकि मन चंचल है इन्द्रियो के वशीभूत है वहा से जबरदस्ती लाना है।
तो हूई न लडाई खुद की खुद से यहा गीता श्रीकृष्ण की वाणी युद्द कह कर संबोधित करती है यह प्रयास सच मे युद्द स्तरीय ही चाहिए, व करने पडेगे।अब आप देखे आप यहा आपने सबसे कठिनतम स्तर पर पहुंच चुके है आसान नही है कुछ भी।जरा सी फिसलन सब धराशाई।
हर बार हर समय चाबुक रखना है।
देखना इन्द्रियो के न घोड़ भगे,
इन पर हर पल संयम के कौने लगे।तो ही यहां तक टिके रहने व आगे चलना संभव होगा।
अरे देखो न इन इन्द्रियो का ही तो सारा खेल है यही तो विध्वंस करती है हमारे श्रम का संधान करती है ,हमारी पहचान को।यह वापस खींचती है और एक हमे है कि ऊपर उठना है। तो किसका महत्व घट बढ रहा है ,कौन परेशान है ,कैसे रक्षात्मक होना है यही यह सब तय होगा।यह आपकी मंजिल यानि जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव है इसके बाद तो अंतिम स्तर है वो है।
ब्राह्मण:-:
ब्राह्मण ब्रह्म से मिलाने वाला इस पर ज्यादा नही कहूगा।पहले के लेख पढ लिजिएगा।।
सब स्पष्ट हो जाएगा। क्योकि यहा से मुक्त होना ही ईश्वर होना है।अब आप सुवर्ण हो गए। अर्थात एकदम शुध्द, पावन,निर्मल,अब कोई सुधार बचा ही नही परिपूर्ण हो गए।
तो मान्यवर यह सब यात्रा हमारी यानि हर जीव की है प्रथम से अंतिम ,शुद्र से ब्राह्मण तक की।मंजिल यही है ।शुद्धिकरण। इसी के लिए जीव भवाटवी मे हिचकोले पर हिचकोले खा रहा है।यहा से बाहर। का रास्ता आप स्वय लेगे ।कब कैसे सब आप तय करेगे।क्योकि आप चाहोगे तो सब हो जाएगा। नही चाहोगे तो खेलो यह खेल तब तक जब तक पूर्ण शुध्द नही होते।
यह गीता का संदेश है।
यही उपदेश है।
अब आहार से भी अपना आचरण पहचाने।
देखे गीता कहती है,कि
शुद्र को बासी दुर्गंधयुक्त भोजन पंसद है ,
वैश्य को खट्टा तीखा ,व मसालेदार।
क्षत्रीय को पकवान, स्वादिष्ट मसाला से व सुस्वाद युक्त, भोजन। जबकि
ब्राह्मण को सात्विक, मीठा,ताजा देसी घी का बना।
देखा सब स्पष्ट है ,
*पहले शुद्र की बात करे,
क्यू बासी,दुर्गंधयुक्त, क्योकि आलसी है बना दिया एक बार ताकि बार बार न बनाना पडे।या जो मिला जैसा मिला ,खा लिया। झूठन हो या गिरा हुआ।आपको ऐसा भोजन कब मिलेगा जब आपके प्रयास शून्य है मन्नसर है किसी के दया पर मांगने पर मिलेगाअब वो जो बचा खुचा होगा वही तो देगा न।।क्योकि प्रयास शुद्र थे।सो खाओ यही सब और बुरा यू नही लग रहा कि अच्छा मिला ही नही तो पता ही नही कि उसका स्वाद कैसे है।कम मे ही गुजारा करना है ।
*अब वैश्य का भोजन क्यू मसालेदार या खट्टा अथवा थोडा ठीक है कारण यहा कुछ प्रयास हुए जो फलीभूत हुए। जब फलीभूत हुए तो खान-पान का स्तर भी सुधरा यानि कुछ खाने के शोक भी पूरे किए।
,व्यवस्थित हो गया। कुछ अधिक प्रयास और थोड बढिया खान-पान। हो गया रसदार,खट्टापन, इत्यादि इत्यादि। यानि स्वाद को तवज्जो दी जाने लगी ।कारण। जुटा सकते है अपने नर यकीन है श्रम करते है।तो पहले से स्तर बढा लिया।
है न ।
*अब क्षत्रीय का खान-पान वैभव युक्त कारण अधिक श्रम व अधिक प्रयास तो भोजन राजसी कई पदार्थ कई व्यंजन है इनकी थाली मे ।सब मन की इच्छानुसार। कारण प्रयास अधिक थे तो जो इच्छा वैसा सेवन ।अब यह सब आपके प्रयास ही तो देगे न यदि आप चाहे की उत्तम से उत्तम खान-पान तो यही है ।जैसे एक राजकुमार को चाहिए। जैसी इच्छा ,जैसा स्वाद, वैसा भोजन। है कि नही।
सो बनोगे न क्षत्रीय। प्रयास से ताकि यह सब का आनन्द ले सके।
*लो जी अब आप हम आ गए ब्राह्मण के भोजन पर ,यह सात्विक क्यू ,क्यू ज्यादा क्षत्रीय की भांति गरिष्ठ नही जबकि यह तो और ऊंचा स्तर है।तो महाशय कारण है गुण ।इस स्तर का जीव जानता है स्वस्थ के लिए क्या व कितना खाद्य लाभकर है।तो खाने की मर्यादित सीमा रखना अनिवार्य हो गया।इसलिए नही कि मन की इच्छा को मार रहे है ।बल्कि आप क्योकि क्षत्रीय से ब्राह्मण हुए है अतः इसके सुस्वादु,चोष्य,इत्यादि का स्वाद पूर्व मे चख चुके है व परिणाम से वाकिफ है कि जीभ का ज्यादा स्वाद आपको पाचन की समस्याओ मे उलझा सकता है तो इंद्रिय संयम तभी तो ब्राह्मणत्व का श्रेष्ठतम गुण है।और वो स्वयंके लिए निषिद्ध कर देता है अपना गरिष्ठ भोजन कारण परिणाम से वाकिफ होना व इच्छाओ पर नियंत्रण। तभी वो ताजा ,मीठा,ज्यादा मसालेदार से परहेज करता है।
तो देखे आप माननीय अब कितना आसान हो गया इन चारो वर्णो को समझना जो आपकी स्थितियां है आपके उद्धार की सीढ़ियां। जो स्वयं की तरह से बता देती है आप किस स्तर व वर्ण के जीव है।तो अब तो समझ मे आ ही गया होगा कि हम शुद्र ,वैश्य, क्षत्रीय व ब्राह्मण कब है।व कितने प्रयास हमे चाहिए कि अपनी उन्नति करे।इससे आप स्वयं ही उत्थान व मुक्ति या मोक्ष के द्वार पहुच सकते है।यह parameters, आपको आपके व्यक्तित्व से मिलाने के लिए निर्धारित पैमाने है।
ठीक कहा न।
तो यहा हमने आचरण, पैदाइश, व,खानपान से जान रहे है कि हम कौन से स्तर के जीव है।एक स्तर बौद्धिक भी है।वो आप मेरे साथ साथ चलते स्वतः समझने लगेगे कि हम क्या थे और क्या है और क्या हो जाएगे।
पर जो शर्त है वो है चिंतन, मनन,व,इस सबको व्यवहार मे लाना।बाकि स्तर से आपको आपके वाकिफ करा दिया है किसी को गाली दो मत।सब आनलाइन कर दिया है स्वय को नापो और जान जाओ क्या हो व वही से अगले पडाव की और बढ चलो यदि चाहते हो ,पर ध्यान रहे न तो जबरदस्ती है न ही आवश्यक कि आप को कोई कहे तो आप चले क्योकि जैसी आपकी इच्छा वैसे करे।जय श्रीकृष्ण जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण
लेख व चिंतन मनन कैसा लगा पढो तो अवश्य कमैंट करके बताए ।ताकि मै भी कुछ समझू कि सार्थक है अथवा और प्रयास करू।जय श्रीकृष्ण।
विवेचक। श्रीकृष्ण की,अमृत वाणी।
श्रीमदभागवत गीता।
Sandeep Sharma Sandeepddn71@gmail.com Sanatansadvichaar.blogspot.com ,
Jai shree Krishna g .
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