अंधेरे मे कोई साया,
कभी मुझसे न टकराया,
सुनी थी बाते बहुत लोगो से,
पर वो कभी मुझसे न मिल पाया,
क्या ये मेरा व्यवहार गलत था,
या मेरी फितरत का असर था,
जिसको जिसको चाहा मैने,
वो ही न मिल पाया।
औरो की तो बात ही क्या करता,
मै खुद से ही रहता था डरता,
भाग रहा था किस कदर मै ,
कर रहा था कौन सा सफर मै
समझ न मै कभी पाया,
क्या रश्मि या अंधकार मे,
कभी न कही ,किसी के प्यार मे,
शामिल मै हो पाया।
क्यू रहता है मन यू आकुल,
पाने को प्यार की चाह को व्याकुल
जो न, कभी मुझको , मिल पाया।
अब तो देखो छोड चला है ,
सारी आस फिर तोड चला है,
मुझको मेरा ही साया।
क्या मेरा यह भ्रम है केवल,
या फिर मुश्किल के दिन का सफर,
कर लेता हू चल फिर कोशिश,
जो मिल ही जाए कोई छाया,
कही मिल ही जाए कोई साया।
एक उम्मीद को।
संदीप शर्मा।
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