तू अपने पंख पसार,
मै खुद के सिकोड़ता हू,
तू ले शीतलता चाॅद की,
मै सूरज को सेंकता हू,
तू बैठ दरिया किनारे,
मै राह देखता हू।
तू ले ले यह रोटी ,
मै ओर देखता हू।
तू बैठ ठंडी छाँव,
मै धूप को देखता हू,
तू सो ,कर आराम,
मै कल की सोचता हू,
तेरे अरमानो को करने पूरा ,
मै जुगत सोचता हू,
तू जी जीवन अपार ,
मै कुछ और सोचता हू।
तेरे शिकवे है हजार,
मै सब जोडता हू,
कर कर के गुणा भाग,
सब को सिकोड़ता हू,
यह है इतने सब यार ,
गिन गिन के छोडता हू।
तू अपने पंख पसार ,
अपने मै सिकोड़ता हू।
तेरी खुशियो की खातिर,
दुख मै खरीदता हू,
ताकि सब उड सके आकाश,
मै पंख खोजता हू।(2)
सब ( हू )को ऐसे पढे (हूँ )
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नोट :- कोई बताएगा यह कविता किस दृष्टिकोण को बताती है ?
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स्वरचित, मौलिक रचनाकार,
संदीप शर्मा, ( देहरादून से।)
Sandeep Sharma Sandeepddn71@gmail.com Sanatansadvichaar.blogspot.com ,Jai shree Krishna g
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