कर रही है वो लुका छिपी ,मुझ संग,
दिखा देती है रोज नए नए अपने रंग ढंग,
किसी का हो न जाऊ आदि,
सो छीन लेती है, उसी क्षण,
ओ जिन्दगी बता न ,
तेरे नियम नही है तंग।
तो देखा लुका छिपी का खेल ,
जब कुदरत का तो समझ आया,
यहा स्थाई क्या है,
न खुद , न साया,
तो फिर ये इंसान क्यू है इतना इतराया।
भ्रम भी ज्यादा देर न टिक पाया,
जब खुद के वजूद की खातिर,
खुद को फौकट मे बिकते पाया।
लुका छिपी का खेल ,
तब कुछ रोचक लगा,
जब एक दोस्त चौखट पर मिला,
जब जले थे सपने मेरे,
पूछा क्या कुछ बचा पास तेरे,
मैने जब कहा, सब जल गया ,
बस मै बचा ,नही है अब कुछ भी पास मेरे,
वो उठा ,हॅसा, और बोला,
कि घबराता क्यू हू ऐ दोस्त ,
मै हू न पास तेरे,
तब आया समझ कि ,
कि यह लुका छिपी का खेल निराला है,
जो छिप गया वो सपना बुरा था,
पर जो दिख गया ,वही तो जीना था।
और हम भी ये क्या लेकर बैठ गए,
जीवन मिला था जीने को,
हम खेल समझ बैठ गए।
तेरी बारी,उसकी बारी,करते रहे,
अपनी आई तो रास्ते नपते रहे।
यह ही नही है दोस्तो ,
कुछ लुका छिपी का खेल,
छोडो खेलना दिलो से ,
आओ मिलाए कुछ दिल से दिल के मेल।(2)
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Originally Scripted by
Sandeep Sharma. Sandeepddn71@gmail.com Sanatansadvichaar.blogspot.com, Jai shree Krishna g
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