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शरीर या देह क्या है ?

 

जय श्रीकृष्ण  दोस्तो।
सब को नमन करते हुए  हम कृष्ण  कृपा से यहाआज सब के  सब जन अपने शरीर के बारे मे समान्य धारणा को समझने की चर्चा को प्रस्तुत  हुए है।
हरि इच्छा यही  रही होगी कि इस पर कोई  चर्चा हो व विचार हो क्योकि इच्छा का मूल स्त्रोत  भी तो हरि ही है न है।
तो आइए जाने यह देह या शरीर क्या है ?
साथियो आप से मै यदि पूछू कि आप कौन हो?
तो आप संभवतः  अपने आप को कहने या समझाने के लिए मुझे बताए कि मै संदीप  हू, मधु हू। रिद्म हू।प्रिया हू,। यानि कि नाम बताए ।है न पर मै कहूगा नही यह तो संबोधन  है ।यह एक पता है किसी के निवास  का तो अमूमन  यह गुत्थी न सुलझेगी ,शायद क्लिष्ट हो जाए।तो फिर
आप कौन  है तो आप ज्यादा अध्यात्मिक हुए तो कह दोगे आत्मा, परमात्मा  यह उसका अंश।तो फिर  जवाब  गोल मोल हो जाएगा  जैसे हो गया है , तो अब कैसे जाने कि यह देह या श्री मान शरीर  है क्या ?
तो जो मेरी  अल्प बुद्धि ने समझा है वो यह कि यह आपका एक निश्चित  स्वरूप है  व लिबास है जो आपने एक रंगमंच  पर एक विशेष  अदाकारी करने या निभाने को रचा है। या ओढा है या पहना है।
तो यहा ये तो स्पष्ट हुआ होगा कि शरीर  स्वरूप  है।
एक पता है ,एक के  निवास का।किसके निवास  का। किसी जीव के निवास  का।अब तो थोडा और स्पष्ट  हुआ होगा न।
तो चलिए  आगे बढे कि यह श्री मान शरीर  की उत्पादन  हुआ किससे,?
तो इसका उत्तर तो हम सब जानते है की पंचभूत  से यानि पांच  तत्वो  से कौन  से पांच  तत्व?
तो श्रीमान  यहा भी मेरी बुद्धि यह कहती है वही पाँच  तत्व जिसे आप  भूमि+गगन (आकाश)+वायु+आग+ नीर (यानि जल) =भगवान  कहते है  । क्योकि यही सब पढा है इसके इनसे निर्मित  होने से लेकर  पोषित होने व अन्ततः  नष्ट हो इसी मे विखंडित होने का कारण  व आधार है।यह स्वरूप । यही पंचभूत है व इनसे ही आपकी व हमारी व अन्य किसी भी दृष्टिगत  वस्तु की सृजनात्मकता हुई है ।और यह मात्र जीवंत ही नही जो निर्जीव तत्व है उनके सृजनात्मक होने का  कारण  भी यही भगवान  यानि पांच  तत्व है।
तो यह तो पता लग गया न कि यह भगवान  जी कौन है जो आपके अंदर मौजूद  है।
थोडा और आगे बढते है।
यह शरीर क्यू? क्या आवश्यकता है,इसकी?
तो जी जवाब  यह सूझता है " कि कर्ण  के कारण को।"
यानि किसी तत्व विशेष  की इच्छा हुई कि यह किया जाए।
तो वो जब करने लगा तो हुआ ही नही।
आप ने कही तो पढा ही होगा न कि ईश्वर ने ब्रह्मा  को आदेश  दिया कि सृष्टि  का निर्माण  करो तो क्या किया ब्रह्मा जी ने ,बहुत कुछ  किया ये किया वो किया ,  यानि कि सब कुछ किया अर्थात कई प्रयोग किए जो असफल थे।।पर तो भी सृष्टि  क्या  एक कण का निर्माण  न हुआ वो भी हजारो वर्ष  की तपस्या के पश्चात  भी यानि प्रयोगो के बाद भी, वही ढाक के तीन पात।
तो यह तय हुआ कि ढींगे हांकने से कुछ नही बनता कर्म  करना पढता है और कर्म किसकी प्रेरणा से तो इच्छा से, और इच्छा किसने की थी ?
किसी एक कण ने । तो जब साहब उस अकेले कण ने इच्छा कर पूर्ण  प्रयास  कर लिया कि निर्धारित  कर्म करे तो उससे बन न पडा यही कारण  है कि तपस्या या प्रयोग  विफल  रहा तब ,तब उसे समझ आया कि अकेला चना बाढ नही फोड़ सकता ।
तो यहा उसे किसी अन्य की सलाह मिली कि मिलकर करो तो ऐसे फिर  प्रयोग  हुए अलग-अलग संयोजन हुए जिससे भिन्न भिन्न  परिणाम  आए। यही भिन्न-भिन्न  जीवो के शरीर  है व योनिया  भी आप कह सकते है।अब इनकी निरंतरता को  या बनाने या सृजन को अलग अलग तरीके थे सो स्वेदज,  उदभिज, अण्डज  जैसे प्रक्रियात्मक ढ़ंग  से उन्हे भी व्यवहार से व्यवस्थित किया गया।
कहते है न जब ब्रह्माजी ने पिंड  बना लिया स्वरूप  का ,तो भी यह श्री मान शरीर  रूपी यंत्र  या स्वरूप क्रियात्मक न हुआ  तो बताया जाता है तब भगवान  ने इसमे प्रवेश  किया तो सृजन  हुआ।
तो यह योग या प्राणो  का संयोजन ही शरीर  की अहम शर्त है।
तो मिलकर ही जीवन  जीना इस स्वरूप  या जीव के जीवन  की अहम शर्त है।यही सामाजिकता है जिसके कारण हम समाज  मे रहना पंसद करते है यही निर्भरता  की आवश्यकता के कारण मिलन अवश्यंभावी है।तो यहा किसका किस से मिलन हुआ जी।
तो जी वही भगवान  जो बताए। पंचभूत  (भूमि गगन,वायु,अग्नि व नीर।भगवान)
तो अब थोडा और स्पष्ट हुआ होगा।
कि देह रूपी पिंड, हमारी एक लालसा का परिणाम है,जो कई  चक्रीय  प्रक्रिया  से गुजर  कर ही तैयार  होता है।
यहा गर मै कहू कि आत्मा कौन है तो अभी आप तो कहोगे के कि परमात्मा , पर मै इसे कह रहा हू इच्छा लालसा कामना, क्योकि रही तो जननी  का कारण  यही ही  है न । इसके स्वरूप  का  (शरीर का )जो जिस उदेश्य  से यह इच्छा जागरूक हुई उसी अनुरूप  शरीर का निर्माण हुआ  व वैसा स्वरूप  धारण किया।वो उदेश्य  पूर्ण  को यह स्वरूप  रचा तो यही है महाराज  यह इच्छा का स्वरूप  या घर जिसे आप संदीप  ,मधु,रिद्म या प्रिया कहते है।
पर इच्छा का कारण  क्या कण ही था।नही वो किसी की प्रेरणा से हुआ तो यह प्रेरित करने वाला कौन  था ।हा हा हा ,अभी भी न समझे ,तो मान्यवर  यह बुद्ध का नायक  स्वयं परमपिता  परमात्मा  मेरे श्रीकृष्ण है।और देखे यह स्वरूप  यू ही निहत्था नही है बल्कि यह उन समस्त  अस्त्र शस्त्र या उपकरणो  से सुसज्जित हे जो आपकी इच्छा की पूर्ति  को आवश्यक  है।यानि आपकी योनि,यौगिक  क्रिया व इसके स्वरूप  का आधार  भी इच्छा मात्र है। और यह मानव ही नही समस्त  योनियो  की क्रिया है।जैसी चाह वैसा आचार  जैसा आचरण  वैसा स्वरूप। तो यह जननी के जनक  का निवास यानि स्वरूप  जिसे हम व आप देह या शरीर कहते है ,मेरे मतानुसार  तो ऐसा ही कुछ  है। जबकि यह शास्त्रोक्त  विधान व विचार  कतई  नही है ।वो बडी सूक्ष्मता की बात  करते है जो मेरी श्रीकृष्ण जी  ने इतनी बुद्धि  न दी कि  वो सब समझ सकू ये सब तो जो कुछ  कभी पढा था उस सबका मेरा निज का विश्लेषणमात्र है । पर वो सबके लिए  जो शास्त्रोक्त है ,जैसे ईश्वर  को स्वयं को साक्षात  दिखाने के लिए  उन्होने ही अर्जुन  को दिव्य  दृष्टि  दी थी वैसी अनुकम्पा  जब मेरे कृष्ण  मुझ पर करेगे तो मै उसे भी स्पष्ट करने मे समर्थ व सक्षम होऊंगा।
तो आत्मा जिस उदेश्य  को पूर्ण  करने हेतु प्रकट  हुई है,या चेतन अवस्था  या स्वरूप  को प्राप्त  हुई है या उसने जो लिबास ओढा है वो ही लिबास, या स्वरूप  शरीर है।इसकी होने के  स्थिति के साथ साथ  इसकी उपयोगिता व सार्थकता  भी शायद आप समझ रहे होगे।
यदि  हां तो बहुत  अच्छे यदि नही तो आप प्रश्न  करा चर्चा करके किसी न किसी मत पर सहमत होते है आओ प्रयास  करे समान्य बुध्दि से सब समझने की।
जय श्रीकृष्ण। जय श्रीकृष्ण। जय श्रीकृष्ण।
चर्चाकार।
संदीप शर्मा। देहरादून से।
कृपया कमैंट  करके बताए कितना तार्किक  है व कहा गुंजाइश है।तो अगले टॉपिक  से रूबरू होने से तब तक।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।श्रीकृष्ण  सदा सहाय। जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण।
जय श्रीकृष्ण। जय श्रीकृष्ण। जय श्रीकृष्ण।
Sandeepddn71@gmail.com Sanatansadvichaar.blogspot.com,
Jai shree Krishna ...


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