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रजोधर्म छूत व अछूत की भ्रान्ति।

 

दोस्तो सामाजिक  चेतना के भ्रामक  व आवश्यक  , अनावश्यक मान्यताओ  व भ्रांतियो की मंशा उजागर  करने के संदर्भ मे यह लेख लिए  उपस्थित  हुआ हू।किसी की भावनाओ को कष्ट देने का कोई  मकसद नही है।
आप को यदि यह असहज लगे तो आप इसे यू ही नकार दे जैसे एक की हुई  बुराई  हमारी सारी अच्छाइयो पर पर्दा  डाल देती है व रिश्तो मे कड़वाहट भर देती है।व रिश्तो  दरार डाल  सब नकार देती है।
प्रश्न है रजस्वला  ,छूत या अछूत। की धारणा ;-
दोस्तो देखा गया है कि राजस्वला  नारी को अक्सर  अछूत  या ऐसे व्यवहार  से ही देखा  समझा जाता है ।व शास्त्र  व पौराणिक लेख इस क्रिया के दौरान   नारी को अपवित्र  कहते  पाए गए  है ऐसे कहा  व सुना है मैने। यह क्यू मन ने बहुत बार समझना चाहा कारण  वैसे तो यह सामान्य  प्रक्रिया है पर आओ कुछ  टटोले कोई  सामाजिक  कारण।पहले अध्यात्मिक  बात करते है कि शास्त्र  क्या  कहते है ?
एक कहानी है  कि यह क्रिया  क्यू हुई,  चले उस पर चर्चा  करे ।कहते है एक बार देवताओ  ने यज्ञ करने की सोची  पर जब यज्ञ के लिए  वो देव पुरोहित  जी के पास गए  तो किसी व्यस्तता  के चलते उनके  देव पुरोहित  ने इंकार  कर दिया तो  उनके ही सुझाव  पर वो अन्य ऋषि के पास जाने को कह चल दिए।जिस ऋषि को कहा उसका बेटा बडा ही विद्वान  था तो उन्होने उसे उन देवताओ  के साथ कर दिया।
जब यज्ञ चल रहा था तो देवताओ  ने देखा कि वो ऋषि पुत्र समिधा डालते समय मंत्र चुरा रहा है अर्थात  जो मंत्र वो बोल रहा था मन मे कुछ  और बोल रहा था।जैसे हमलोग की फितरत होती है मन मे कुछ  पर जुबा पे कुछ। तो ऐसे मे इंद्र देव  ने ब्राह्मण  पुरोहित  का राज जान लिया व उसका   वध कर दिया ।अब  इंद्र  को ब्राह्मण  वध का  पाप लगा  पर सब देवताओ  के हितार्थ  यह कृत्य हुआ  था सो  यह पाप कौन ले  ?  की बहस हुई ।तो कहते है इसे ब्रह्मा  जी ने चार भाग  वृक्ष, जल,व नारी एवं भूमि।मे बराबर बराबर बांट दिया।तो यहीं से शुरूआत  हुई  नारी के राजस्वला धर्म  होने की।अब यह क्यू  व कितनी सच्ची बात है तो प्रमाण  तो नही है मेरे पास पर कहा  क्यू गया कि चिंतन करने पर यह उत्तर मेरे मन ने दिया।
पहले तो आपको शास्त्र सम्मत  कह दू। कि इसके प्रभाव  व लाभ  क्या है ।
पेड को तने से काटने पर  या शाखा को काटने पर भी उसमे नई पत्तियो आ जाएगी।,जल अवशोषित  हो कर पुनः जल का सृजन  कर लेगा।भूमि मे जो रोपित करोगे पचास  गुणा ज्यादा  देकर लौटाएगी।
स्त्री जब भी इस राजस्वला क्रिया से गुजरेगी तो नवीन संरचना व संतति  उत्पन्न  करने मे समर्थ  होगी।
तो असल मे तो  यह  सम्मति व मेरी मति कहती है कि यह नव सृजन  की शुचिता  व शुद्धिकरण  को किया गया उपाय है ।व केन्द्र  मे नारी को यूं रखा गया कि उसे तकलीफ  न हो ।
पर बाद मे जैसे जैसे बुद्धिमान लोगो ने व्याख्यान किया । अपने अपने मत का समा वेश किया वैसे वैसे विकार आते गए। व बात का वजन घटता गया।असल मे तो नव सृजन  की प्रक्रिया  की तैयारी है।यह क्रिया । पर लोगो मे इससे छूत व अछूत होने का बोध क्यू कराया यह मै बताने जा रहा हू ।जिसे नारी शक्ति अन्यथा न ले व गलत होने पर छोटा भाई समझ माफ करे।
दरअसल  समाज मे जैसे दो वृतिया  है दैवीय  वृति अथवा आचरण व दानव या दैत्य  वृत्ति  अथवा आसुरी वृति या आचरण। अब देव सम्मत  लोग तो शास्त्र मे लिखित हर बात को ज्यो का त्यो  मान लेते है,  ज्यादातर  सवाल नही उठाते पर आसुरी वृति के लोग ऐसा नही कर पाते  व वो बार-बार  कोई  सवाल खडा करते है।तो उनको समझाने,या भय दिखाने हेतु शास्त्रकारो ने मेरी मति के अनुसार  अछूत  अथवा निंदनीय  व पूजा आदि से भी वंचित  रखने को यू कहा क्योकि उसमे भी शारीरिक  श्रम लगता है और वो पहले से ही थकी है व कमजोर हो रखी है पीडित है रुग्ण है तो यह सब उसके हित को ही माना ताकि इससे नारी पर ही उपकार हो।
अब आप समझे कि कैसे।नारी वैसे भी अबला अथवा पुरूष के बराबर शारीरिक  क्षमता नही रखती व कैसे भी कहे पुरूष  मानसिकता उसकी पीढा नही समझता व भोग की वस्तू प्राय ही समझता है।तो ऐसे मे उसकी  चलने भी नही देता।तो ऐसे मे वो यह अछूत  अपूजनीय आदि आदि  कह कर उसे अलग कमरे या परिवेश   मे रखने को कहा गया।ताकि उसके साथ जोर जबरदस्ती न हो । यह तो आप जानते ही है कि एक कमरे मे भाई बहन को भी रहने के लिए  अंगुली  उठाई  जाती है मकसद यही था कि नारी एक तो शारीरिक  बदलाव  व पीडा  से झूंझ रही है  दूसरे  उसके साथ अनैतिक  कृत्य न हो ,तो उसे अलग कर उसे इस पीढा से आजाद  किया जाए  यही मंशा रही होगी ऐसा प्रतीत होता है। और फिर  पुरूष  उससे संबध स्थापित  न करे व उससे उसके लिए  स्थिति  और असहज  व पीडाकर  न हो और दर्द व असहनीय  न  सहना पडे  तो यह भी कारण  सूझता है।क्योकि हो सकता है नारी भी स्वय पर नियत्रंण  न रख पाए व कुछ  गलत हो जाए जो रोगग्रस्त होने का कारण बने।एवं एक अन्य कारण  यह भी हो सकता है कि उस समय आज की तरह सुविधाजनक  तो  कुछ  इतना था नही तो हो सकता है शुचिता जैसे चीजो के लिए भी यह  अछूत पन की पद्दति  बलवती रही हो।कारण कोई  भी हो पर मंशा नेक थी व है।पर अब तथाकथित  मार्डन  लोग   हर बात को यू ही नकार देते है।हमारे वेद शास्त्र क्या कहते है यह तो कोई  समझ ही नही पाता तो बाकि क्या कहेगे।जब सबको भागवत जैसे महापुराण  पर   देवी जागरण पर ठुमके लगाते देखता हू तो हैरत होती है यह क्या बखान करेगे शास्त्र को जो ईश्वर के नाम पर फिल्मी धुन पर नाच रहे है।।जबकि ऐसे मे इनकी  अपनी बुध्दि  ही नाचगान मे सिमटी है  तो यह ईश्वर की प्राप्ति व महता को क्या समझेगे।और फिर  यह रस वर्षा  इस लिए  भी पापुलर है क्योकि  कमाई का साधन है। अन्यथा जो धरती चाॅद सूरज से लेकर चिकित्सीय  व आणविक  एवं ब्रम्हांड की जानकारी संजोए   शास्त्र है उस व्याख्यान  पर आप ठुमके कैसे लगा सकते है।जो चिंतन मनन किया गया है वो समझने के लिए  सामान्य  बुध्दि से काम न चलेगा।तो इसलिए  कहा  गया कि राजस्वला  होने पर नारी को अलग किया जाए ताकि उसकी और दुर्दशा  न हो जो अमूमन उसे पुरूष  का मन रखने के लिए  कोई  अनैतिक  कृत्य करना पडे व उससे उसे शारिरिक  व मानसिक  रोग पीढा या  कोई  अन्य नुकसान हो।मेरी समझ तो यही कहती है। बाकि आप ज्यादा विद्वान  है जो कहे वही सर माथे व सही है।आप चाहे तो विरोध  की मशाल उठा सकते है।और अपना मत भी प्रकट कर सकते है अपनी टिप्पणी अवश्य दे।यदि कोई  अन्य तथ्य सामाजिक  रूप से हो तो बताए यह एक परिचर्चा है और उदेश्य  है विकार व भ्रांतियो का खंडन करना। जो कि जरूरी है। बाकि ज्यादाआप कह सकते  है।व समझ रखते है।
धन्यवाद  व जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण।
सामाजिक। मुद्दो  की बात करता।
संदीप  शर्मा। देहरादून से।


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