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राजस्वला भ्रांतियो का खंडन।

 कहते पाए गए है ऐसे कहा व सुना है मैने।

एक कहानी कि यह क्यू हुई क्रिया  चले उस पर चर्चा  करे ।कहते है एक बार देवताओ  ने यज्ञ करने की सोची  पर जब यज्ञ के लिए  वो देव पुरोहित  जी के पास गए  तो किसी व्यस्तता  के चलते उन्होने इंकार  कर दिया तो वो अन्य ऋषि के पास जाने को कह चल दिए।जिस ऋषि को कहा उसका बेटा बडा ही विद्वान  था तो उन्होने उसे उन देवताओ  के साथ कर दिया।

जब यज्ञ चल रहा था तो देवताओ  ने देखा कि वो ऋषि पुत्र समिधा डालते समय मंत्र चुरा रहा है अर्थात  जो मंत्र वो बोल रहा था मन मे कुछ  और बोल रहा था।जैसे हमलोग की फितरत होती है मन मे कुछ  पर जुबा पे कुछ। तो ऐसे मे इंद्र देव  ने ब्राह्मण  पुरोहित  का वध कर दिया ।अब ब्राह्मण  वध का तो पाप है और यह पाप कौन ले ।तो कहते है इसे ब्रह्मा  जी ने चार भाग  वृक्ष,जल,व नारी एवं भूमि।मे बांट दिया।तो यहा से शुरूआत  हुई  नारी के राजस्वला होने की।अब यह क्यू  व कितनी सच्ची बात है तो प्रमाण  तो नही है मेरे पास पर कहा  क्यू गया कि चिंतन करने पर यह उत्तर मेरे मन ने दिया।

पहले तो आपको शास्त्र सम्मत  कह दू।पेड को तने से काटने पर भी उसमे नई पत्तियो आ जाएगी।,जल अवशोषित  हो कर पुनः जल का सृजन  कर लेगा।भूमि मे जो रोपित करोगे पचास  गुणा ज्यादा लौटाएगी।

स्त्री जब भी इस राजस्वला क्रिया से गुजरेगी तो नवीन संरचना व संतति  उत्पन्न  करने मे समर्थ  होगी।

तो असल मे यह है सम्मति व मेरी मति कहती है कि यह नव सृजन की शुचिता व शुद्धिकरण को किया गया।व केन्द्र मे नारी को यू रखा गया कि उसे तकलीफ न हो ।

पर बाद मे जैसे जैसे बुद्धिमान लोगो ने व्याख्यान किया । अपने अपने मत का समा वेश किया वैसे वैसे विकार आते गए। व बात का वजन घटता गया।असल मे तो नव सृजन  की प्रक्रिया  की तैयारी है यह क्रिया  पर लोगो ने इससे छूत व अछूत होने का बोध क्यू कराया यह मै बताने जा रहा हू ।जिसे नारी शक्ति अन्यथा न ले व गलत होने पर छोटा भाई समझ माफ करे।

दरअसल  समाज मे जैसे दो वृतिया  है दैवीय  वृति अथवा आचरण  व दानव या दैत्य  वृत्ति  अथवा आसुरी वृति या आचरण। अब देव सम्मत  लोग तो शास्त्र मे लिखित हर बात को ज्यो का त्यो  मान लेते है, पर आसुरी वृति के लोग ऐसा नही कर पाते तो उनको समझाने,या भय दिखाने हेतु शास्त्रकारो ने मेरी मति के अनुसार  अछूत  अथवा निंदनीय माना ताकि इससे नारी पर ही उपकार हो।

अब आप समझे कि कैसे।नारी वैसे भी अबला अथवा पुरूष के बराबर शारीरिक  क्षमता नही रखती व कैसे भी कहे पुरूष  मानसिकता उसकी चलने भी नही देती।तो ऐसे मे वो यह अछूत  अपूजनीय आदि आदि  कह कर उसे अलग कमरे या परिवेश  मे रखने को कहा गया।ताकि उसके साथ जोर जबरदस्ती न हो । यह तो आप जानते ही है कि एक कमरे मे भाई बहन को भी रहने के लिए  अंगुली  उठाई  जाती है मकसद यही था कि नारी एक तो शारीरिक  बदलाव  व पीडा से झूंझ रही है दूसरे अनैतिक कृत्य न हो ,तो उसे अलग कर उसे इस पीढा से आजाद  किया जाए ताकि पुरूष  उससे संबध स्थापित  न करे व उससे उसे और दर्द व असहनीय न हो। क्योकि हो सकता है नारी भी स्वय पर नियत्रंण ऑ रख पाए व कुछ गलत हो जाए जो रोगग्रस्त होने का कारण बने।एवं एक अन्य कारण  यह भी हो सकता है कि उस समय आज की तरह सुविधाजनक  तो था नही तो हो सकता है शुचिता जैसे चीजो के लिए भी यह  अछूत पन की पद्दति  बलवती रही हो।कारण कोई  भी हो पर मंशा नेक थी व है।पर अब तथाकथित  मार्डन  जन हर बात को यू ही नकार देते है।हमारे वेद शास्त्र क्या कहते है यह तो कोई  समझ ही नही पाता तो बाकि क्या कहेगे।जब सबको भागवत जैसे महापुराण  पर  ठुमके लगाते देखता हू तो हैरत होती है यह क्या बखान करेगे शास्त्र को।जबकि अपनी बुध्दि  ही नाचगान मे सिमटी है और यह रस वर्षा  इस लिए  की पापुलर हो।व कमाई का साधन बढे अन्यथा जो धरती चाॅद सूरज से लेकर चिकित्सीय  व आणविक  एवं ब्रम्हांड की जानकारी संजोए  शास्त्र है उस व्याख्यान  पर आप ठुमके कैसे लगा सकते है।जो चिंतन मनन किया गया है वो समझने के लिए  सामान्य  बुध्दि से काम न चलेगा।तो इसलिए  कहा  गया कि राजस्वला  होने पर नारी को अलग किया जाए ताकि उसकी और दुर्दशा  न हो जो अमूमन उसे पुरूष  का मन रखने के लिए  कोई  अनैतिक  कृत्य करना पडे व उससे उसे शारिरिक  व मानसिक  रोग पीढा या नुकसान हो।मेरी समझ तो यही कहती है। बाकि आप ज्यादा विद्वान  है जो कहे वही सर माथे व सही है।आप चाहे तो विरोध  की मशाल उठा सकते है।और अपना मत भी प्रकट कर सकते है अपनी टिप्पणी अवश्य दे।यदि कोई अन्य तथ्य सामाजिक रूप से हो तो बताए यह एक परिचर्चा है और उदेश्य है विकार व भ्रांतियो का खंडन करना। जो कि जरूरी है। बाकि जयादाआप समझदार है।

धन्यवाद  व जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण। 

सामाजिक। मुद्दो की बात करता।

संदीप शर्मा। देहरादून से।



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