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कर्म अकर्म व विकर्म। (भाग 1)

 

जय श्रीकृष्ण। साथियो जय श्रीकृष्ण। मित्रगण  जय श्रीकृष्ण  पाठकगण।
आज फिर कृष्ण कृपा से एक विशिष्ट  व विशेष  शब्द कर्म, अकर्म  व विकर्म  को समझने व चर्चा करने की प्रयास यहा हम  करेगे।
श्रीकृष्ण जी ने  आज  यही प्रेरणा दी है। तो आइए  विश्लेषणात्मक  चर्चा  करे  व देखे कि वहा तक पहुंच  पाते है यहा श्रीमदभागवत  गीता जी असल मे ले जाना चाहती  है ?
तो आइए  करते है चर्चा।
आइए पहले समझे कि  कर्म क्या है ?
कर्म action:-
What is action?
कर्म  क्या है ?
वैज्ञानिक  लोगो ने इसकी अपनी परिभाषा दी है।जैसे:-
"Work is said to be done if a thing  or object is displaced by  putting  an efforts. "
यानि
"कोई  बाह्य अथवा  आंतरिक बल लगाने पर वस्तु की स्थिति  यदि बदल जाए  तो यह कार्य या काम कहलाता है।"
उदाहरण। आप बताए व देखे। तब भी न समझ आए तो पूछे।
यह कर्म या कार्य का सिद्धांत हमारे अध्यात्मिक स्तर पर भी क्या यही बात होना या इस परिभाषा का सार्थक होना मानता है अथवा नही।
मेरे मतानुसार ,जी  हां  मै तो इसे बिल्कुल  मानता हू। पर यहा जो समझना है वो कि कैसै?
क्योंकि  यहा कर्म आपके स्थान  या आकार अथवा  किसी अन्य परिवर्तन को नही  बल्कि  आपके आत्मिक स्तर के बदलाव  की बात करता है।
बस इतना अंतर है।
गीता मे जो सबसे ज्यादा बल दिया गया है न वो इन्ही कर्मो  पर ही दिया गया है।और यह कर्म  वो नही जो आप सोच कर बैठे है।काम जी हाॅ आपने यदि यह सोच रखा है कि नहाना धोना,खेती करना,धन कमाना या और धार्मिक  हुए  तो दान पुन्य  परोपकार। आदि आदि  करना  काम या कर्म है तो यह तो सत्य नही मान्यवर।क्योकि  मै जानता हूं आप कर्मो  के उच्चतम  स्तर अच्छे कर्म या दान,धर्म  सेवा,परोपकार  आदि ही मानोगे।
है न जबकि यह सच मे कर्म नही है ।
तो यदि यह कर्म नही है तो क्या फिर पाप ,गलत आचरण  या कोई  और अनैतिक  कृत्य  आदि कोई कर्म है ?।
तो  इसका जवाब है न,न, बिल्कुल  नही कतई नही।
अरे  ये कर्म नही वो कर्म नही तो फिर महोदय  कर्म है क्या ?
यही तो चर्चा  करनी है मान्यवर।
इससे पहले कि कर्म को जाने तो समझे जिन्हे हम कर्म  माने बैठे है जो उपरोक्त  बताए  तो पहले इन्हे तो जान ले कि ये क्या बला है ?
तो पहले यही जानना ठीक रहेगा।
है न।
तो सीधे से उत्तर पर आते है कि ये उपरोक्त  कृत्य कर्म  नही आचरण है ।
किसके ?
उत्तर है ,
व्यापार  के।
व्यापार  ?
व्यापार  तो लाभ  हानि देखता है।
तो क्या यह वो वाला व्यापार है ?
जी, ठीक  वैसा तो नही,
पर कुछ कुछ  वैसा ही।
कैसे,
तो वो ऐसे कि यदि  अच्छे  आचरण  हो गए।
तो अच्छा व्यवहार  व संस्कार  का खजाना  या लाभ  जुड जाएगा।
वही गलत व्यवहार, खोटे सिक्के  के रूप मे सृजित होगा।
अब देखे,
यह।जो अच्छे बुरे का सृजन  हुआ  भावी  काल मे ये वो धन संचय हो गया जिससे हमने सुख दुख  नामक पदार्थ  खरीदने है।
यह तो एक तरह से करंसी  का सृजन  हुआ।जो कि आगे के जन्म को सुरक्षित  कर ली गई है।
कहा की यह पूंजीगत  संचय जमा हुआ। ये वो धन है जो हमारी अगली प्रगति मे कही न कही सहायक  होगी।
तो जैसे बैंक  मे आप रखते है  न पैसा वैसे ही आपके कर्मो  के ब्याज सहित  पाने को यह करंसी जमा  हुई है ।
पर कर्म  के रूप मे नही।
अरे उलझा रहा हू क्या ?
नही
उलझा नही रहा ।
समझा रहा हू बस।
वो भी अपने बौद्धिक  स्तर के अनुसार।
तो अब समझ आया कि यह क्या है ?
तो यह आचरण  के अच्छे व बुरे खजाने की कंरसी है जनाब जो हमने जमा की है।यह सब करके जिसे आप अच्छे व बुरे कर्मो मे बांध ,सहेज या  जमा  किए बैठे है।।और इनका कर्मो  के  हिसाब  से बकायदा लाभ  व हानि  जैसी संचायिका यानि जमा पूंजी जो  खर्च होगी  वैसी ही परिणाम देगी।व
सहायक होगी।
तो अब कर्म की चर्चा करे कि कर्म क्या है ?
हां यह ठीक रहेगा।
क्योकि बहुत  इंतजार करवा  दिया।
अब और नही।
तो ठीक  है यह कर्म कोई  बहुत  बडी तोप नही मात्र यज्ञ है।
यज्ञ ?
जी,
अब आप कहोगे यज्ञ कौन सा?
अश्वमेघ, यज्ञ  या राजसूय यज्ञ। अथवा कोई  और ।
तो नही नही ये वो वाले यज्ञ  नही है।
तो यह समझ लिया  तो सब सरल हो जाएगा।
गीता ने किसी भी कर्म को जो पहले बताए  कर्म नही माना सिर्फ यही कहा कि यज्ञ कर ।तो कौन सा यज्ञ ?
बस यह समझना है।
तो यह कोई  हवा व समिधा  से यज्ञ कुंड मे आहुतियां डालना नही बल्कि  आत्म चिंतन  कर आत्मिक  स्तर  को सुधारने  का उपक्रम  है।यह जान लो।अब यह स्तर कैसे सुधरेगा। कैसे आत्मिक  उत्थान  होगा।तो वो तभी होगा जब सरल व सहयोगात्मक  आचरण कर अपने बारे मे सोचोगे।।
क्या ?
कि तुम  हो कौन ,क्यू व क्यू ऐसे ही हो से लेकर कैसे अब उच्च स्तर को पहुचना है।के सब के सब जवाब  को अपनाए जाने वाले तौर तरीके ?
यही सब यज्ञ है।
क्या आसान  है ,
न कदापि  नही,
क्या असंभव है ?
बिल्कुल  नही,
तो फिर  क्या  व कैसे करे इसका आरंभ।तो इसके आरंभ को तत्वदर्शी  की शरणागत  होना होगा।
अब आप तत्व दर्शी  को तो जानते ही नही हो ? तो पहले पिछले लेख मे किए  गए  जिक्र इस विषय  को पढ कर उसे समझे व उनकी शरण ले तो ही प्रयास  फलीभूत होगे।
क्यू ले उनकी शरण?यह भी समझे।
क्या स्वयं  प्रयास  नही कर सकते ?
कर सकते है,
पर उसमे समय लगेगा। कई  जन्म भी लग सकते है।तो जो लाइसेंस  धारी है वो सहायतार्थ उपलब्ध है तो कयू न उनका मार्गदर्शन  ले ले ,तो शीघ्र  सफल भी तो होगे तो  क्योकि ऐसे मे शीघ्र  कल्याण  संभव है।
सो कहा कि तत्वदर्शी की शरण ले ले।अब देखे न हम अपने को तो पहले ही विद्वान  व सर्वज्ञ  माने बैठे है।तो ऐसे मे हम भरे घने मे और क्या भरेगे।
यह तत्व दर्शी ही है जो पहले हमारा यह घडा खाली कराएगे ।जो जो अनावश्यक  पदार्थ है उनसे अव्यक्त हमे नए  सृजन  को प्रोत्साहित व उत्साहित करेगे व मार्ग दर्शन देगे। एवं शिथिल  होने पर सजग भी करेगे।
तो अब आया न समझ कि तत्वदर्शी  का महत्व क्या है।
तो खैर
यह तो अलग ही विषय है।
पर हम बात कर रहे थे कि यज्ञ ही वास्तविक  रूप  से कर्म है ।व यज्ञ  भी कौन से इससे भी साक्षात्कार  कराया।
वो काम जो आपकी आत्मा के उत्थान  को है।
अब बस शांत हो जाइए।और जो गूढ रस व यज्ञ  का मंत्र बताने जा रहा हू उसे ध्यान  से सुनो।
वो है ईश्वर  मंत्र 
यह एक ऐसा यंत्र  देने जा रहा हूं।है जो आपके स्वभाव  से लेकर  आत्मा के उत्थान  को सुधारते सुधारते  आपको शुद्र से ब्राह्मण  व  फिर  तत्वदर्शी  व फिर   देव और तब महादेव  से लेकर साक्षात कृष्ण  कर देगा।
तो तैयार हो जानने को कि वो अस्त्र शस्त्र लाइसेंस  व सबकी कुंजी जो है उसे पाने को?
क्या करोगे अपना उत्थान  व कल्याण  यदि तैयार हो तो पढना इसका अगला भाग यहा बाकि की चर्चा को आगे बडा इस विषय  को देगे विराम।
लेकिन  एक बात याद रखना इससे सरल व सटीक  व परिपूर्ण  कोई  आपको मंत्र दे दे तो जीवन मे कभी न लिखूगा।
यह वायदा है।जय श्रीकृष्ण के साथ  अगले अंक मे भेट होगी।
जय श्रीकृष्ण जय श्रीराम जय श्रीकृष्ण जी।अगले अंक की तैयारी करता कर्म  शील
संदीप  शर्मा। देहरादून से।
जय श्रीकृष्ण। मिलते है।
जय माता दी।जय हो


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