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मोह व आसक्ति( भाग दो।)

 

सभी मित्रगण को प्रणाम  व जय श्रीकृष्ण।
व राधे राधे।
साथीगण  यह मोहहमे बडा सताता है पर यह हमारे उत्थान  को आवश्यक है।व यह

प्रेरित  करता है कि हम अपने उदेश्यको सार्थक ढंगसे निर्वहन करते हुए आगे बढे।।तो आइए  सुनते है यह कथा।
जिसका हमने आपको पिछले अध्याय  मे सुनाने का मोह रख छोडा था।


कहते है जब ऋषि वेदव्यास  श्रीमदभागवत  पुराण  को रचने को प्रेरित  हुए थे तो  उन्हे ऐसे सृजन शील व्यक्ति या हस्ति की आवश्यकता हुई जो इस पुराण  को उसी गति से लिख सके जिस गति से वेदव्यास  भगवान  सोच रहे  हो व सृजन  कर रहे थे।तो ऐसे मे नारद जी ही सहायक हुए।नारद जी ने इसमे उनकी सहायतार्थ  श्री गणेश  जी का नाम  सुझाया। तो वो उनने पास  गए  व उन्हे मनाया वो तो बुद्धि  कौशल के स्वामी है तो हामी भर दी।और इधर वेदव्यास  जी ने एक विचित्र  शर्त यह रखी कि जो बोलूंगा  वो तो उसी गति से लिखोगे  ही पर लिखोगे तब जब उनके अर्थ सही  सही से लगा सको।और यह तो गणेश जी   थे ही कौशल  व बुद्धि के देवता तो यहा से यह सृजन  आरंभ  हुआ।तत्पश्चात  हुआ यह कि नारद जी ने तो मात्र चार श्लोक ही भागवत  जी के कह कर वेदव्यास  जी को संतुष्ट  कर दिया पर इधर वेदव्यास  जी ने इसे विस्तृत  कर एक हजार पर्व  अर्थात  अध्यायों मे इसे संकलित  कर लिया ,जब कार्य  पूरण हुआ तो वेदव्यास  जी ने मोहवंश  अपने प्रियतम  शिष्य  जैमिनी से कहा इसे पढकर सुधार  अथवा कोई  प्रसंग  को जो न समझ आए या कोई  अन्य बन पढे तो बताए।यानि कि समूलतः इसका विवेचन व विश्लेषण   करे।


कहते है जब यह सब चल रहा था तो जैमिनी  जी ने सहर्ष यह अनुरोध  स्वीकार  किया  व मध्य मे कही एक श्लोक  पर आकर रूक गए। वहा वो कहने लगे कि इसकी प्रासंगिकता नही है व वहा उन्होने कलम चला दी।कि यह नही होना चाहिए। अब गुरु  तो गुरू होता है व शिष्य शिष्य  ही। यहा मोह का उत्कृष्ट  उदाहरण  देखने को मिलेगा ।


तो पहले यह बात का समय व संदर्भ  जान ले।यह बात है द्वापर की भी  मध्य पूर्व की है जब यह घटित  हुई। तो श्लोक  तो मुझे संस्कृत  न आने से नही आता पर उसका अर्थ था कि कोई  भी माननीय  स्त्री  चाहे वो किसी  की या अपनी  ही बहन बेटी बहु व किसी भी अन्य रिश्ते मे ही क्यू न हो एकांत  मे पुरूष  के साथ  कभी न रहना चाहिए।  भले ही वो कोई  भी संबध क्यू न रखती हो।


तो यह बात ऋषि जैमिनी पचा न पाए। कि ऋषि या विद्वानों  पर यह बात  लागू नही होती सो वो इस पर तर्क   को आगे आए।तब व्यास जी ने  तो उस समय कुछ  न कहा पर समझ गए  कि यह अभी पूर्ण  ज्ञान  नही ले पाया है सो उन्होने इस बात पर विवाद  न कर  एक प्रसंग  रचा उसी रात वे एक समान्य नारी बन उनकी कुटिया के सामने जा कर बैठ गए। व जैमिनी जी से कहा क्या वो कुछ  खाने को पा सकती है।तो अपने पात्र से उन्होने उस नारी को खाने को कुछ  दे दिया।इधर  रात हो आई तो नारी बने व्यास जी ने रात को कुटिया मे शरण मांगी  तो जैमिनी जी ने उन्हे रहने को एक कक्ष दे दिया व हिदायत  दी कुछ  भी हो जाए यह कक्ष भीतर से बंदकर लो व बिल्कुल  न खोलना।तब वे माला फेरने लगे तभी उनका मन माला व ध्यान आदि मे न लगा उनकी साधना कलुषित होने लगी।कारण  था उसी सामान्य  सी दिखने वाली नारी का मोह  जो रह रह उनके विचारो मे आ साधना भंग कर रहा था।


कहते है प्रयास  मे अर्ध  रात्रि  व्यतीत  हो गई। अन्ततः जब रहा न गया तो   वे ध्यान  व साधना छोड कक्ष का किवाड  खटखटाने लगे।तो उस नारी ने दरवाजा न खोला तब वे और व्याकुल  हो अनुनय-विनय  करने लगे तब नारी बने व्यास  जी ने किवाड  खोल  दिया व दरवाजा खुलते ही वे जैमिनी  जी की गोद मे थे।गोद मे आते ही व्यास  जी पुरूष  रूप मे प्रगट  हो उस श्लोक  का महत्व बताने लगे कि ऋषिवर यह घटना आज की है एक ऋषि की है तो आप देखे इस शास्त्र को तो कलयुग मे भी पढा जाना है जब शुद्धिकरण  व चारित्रिक  चरित्र  की बाते भी बेमानी होगी ऐसे मे यह श्लोक  प्रासंगिक  है कि नही तब ऋषि जैमिनी की ऑखे खुली। व वो मोह के इस विकार  जो वैचारिक  से व्यवहारिक मे बदला के परिणाम  से वाकिफ  हो  व्यास  जी से क्षमा मांगने लगे।तो बाकि देवता जन भी यह सब जान कर समझ गए। कि इसकी कितनी प्रासांगिकता  है।व वे सब वेदव्यास  जी की  वैचारिक  व दूर  दृष्टि से परिचित  व प्रभावित हुए ।कहते है फिर यह एक हजार व पर्व  वाला भागवत  ईश्वर ने स्थाई रूप  से अपने पास रख लिया व अट्ठारह  हजार श्लोक  वाला श्रीमदभागवत  पुराण  समस्त  मृत्युलोक  के लिए  भेंट  किया।तो हम जो श्रीमदभागवत  जी का अध्ययन  करते है जिसपर आजकल  ठुमके लगाए  जाते है वो अट्ठारह  हजार श्लोक  वाला ही भागवत  पुराण है।  जो कितना आप को लुभाता है व क्या मकसद है उसका पर क्या परोसा जा रहा है यह मोह का विमोह है।आपका उदेश्य  तो ज्ञानार्जन है पर वहा तो मनोरंजन  सा हो रहा है।तो एक मोह  तो आपने देखा जैमिनी जी को हुआ,


दुसरे वेदव्यास  जी को।अपने कथा से जिसकी पुष्टि  का सार्थकता उन्होने दृष्टांत  रच कर की।और हमारा मोह जो धर्म  का होता है तब अधर्म हो जाता है जब मकसद व साधन  औचित्य हीन हो उठते है ।तो यह सब मोह जो आसक्ति  मे बांधता  है ताकि हम उससे लगाव यू रखे कि कार्य  की सार्थकता पूर्ण हो ,को समझने की आवश्यकता है।


यह जो मोह की  महीन  पगडंडी है इसपर चलना  टेढ़ी  खीर है जरा सा पाँव  फिसला तो इधर कुआ  उधर खाई  वाली  बात चरितार्थ होगी ,तो संभल कर मोह से मोह करे।मोह आवश्यक है जब अपने उदेश्य की पूर्ति को किया जाए ।


तो आपने देखा कि कैसे एक इच्छा व कामना जो वैचारिक  थी मोह का कारण  बनती है व यही इच्छा फिर व्यवहार  मे बदल कर हमारा चारित्रिक  हनन  व उत्थान  को हमे प्रेरित करती है।


तो यहा हमने मोह के माया जाल को समझा कि कैसे यह आकर्षित  कर अपने लपेटे मे लेती है।


इसे हथियार  बनाइए। उत्थान  का,


न की अपने पतन का।


विचारे।


व पूर्ण  तर्क करे जो तर्क संगत हो।


जय श्रीकृष्ण। जय श्रीकृष्ण। जय श्रीकृष्ण।


आपका दोस्त,


मोहग्रस्त।


संदीप  शर्मा,


विवेचक,


श्रीमदभागवत गीता,


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