आती बहुत है घर की याद,, पर जाऊ कैसे ,बनती न बात,, करता हू जब इक हल ,,ऐसे ,, आ जाती बात ,,और ,, जाने किधर से ? इक घर सूना हुआ तब था,, जब मै निकला, लिए रोटी का डर था,। रोटी के लालच को खूब,, उस घर को क्यू गया मै भूल,, भूला नही बस वक्त ही न था,, इस रोटी ने,,न दिया समा था ,। हो गए हम अपनी जडो से दूर,, जैसे पेड एक खजूर,, पंछिन को जो छाया,,नही,, फल भी लगते है बहुत दूर।। आती बहुत है याद उस घर की,, कहती इक लडकी फिर, चहकी , पर तब वह उदास हो गई, बात देखो न खास हो गई है। जिसमे उसका बचपन था बीता, ब्याह क्या हुआ ,वो तो फिर छूटा,, इक तो जिम्मेवारी बहुत है,, दूजे पीहर की खुशी का न जिक्र है,, मायके मे ,इज्जत भी तो न मिलती, करे भी क्या मजबूरी बहुत सी ,, पहले तो चाॅव वो कर भी लेते थे,, मुझको घर बुलवा भी लेते थे,, जब से हुई भाई की शादी,, बुलावा न आता ,,वैसे शाह जी,, अब तो रस्मे ,निभाने लगे है,, घर मे कम बुलाने लगे है।। यही है अब दर्द का राज,, घर की बहुत आती है याद। अब सुनो इक सहमी सी बात, जिससे रोएगे सबके जज्बात, न भी ,तुम जो रोना चाहो,, तो भी रो देगे
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