किधर भटकता इधर उधर,
है क्या तुम्हे ये जरा खबर,,
यह कोई सौम्य सा बालक नही है ,,
यह तो है अशांत मन,,का सफर,।
इसकी तो तुम कुछ न पूछो,,
यह बच्चा बिगडैल जो बूझो,,,
कब किस की जिद्द यह कर बैठे,
,इसके तमाशे।मुझसे न पूछो,,।
बच्चो सी यह जिद्द करे है,,
वृद्ध ढिठाई, पर अड़े है।
इसकी जो फिर बात न मानी ,
,समझ लो तुम्हारी आफत तय है।
क्यूँ होता है अशांत यह मन,,
इसको रहती सदा उलझन,,
सब काम को यह करना चाहता,,
सुख ही सुख,,हो और हो पैसा,,
जो इसको यह सब न मिला तो,,
बस अशांत हुआ है यह तो,,
इसकी इच्छाए है भरपूर ,,
पर शरीर की क्षमता है मजबूर,
वो उसको जब शांत न करती,,
तब इसमे अशांति भरती।
काबू इसे जो करना हो तो,,,
नियम कुछ फिर बना ही लो तो ,,
इसकी खुराक तो बस सिर्फ काम है ,,
उलझा दो उसमे ,फिर देखो आराम है।।
देखो न फिर यह अशांत रहेगा,,
तुम्हारा भी मन लगा रहेगा,,
यही है इसका सूत्र ,यत्न,
जो तुम जानो ओ रे सजन,
फिर न रहेगा ,अशांत यह मन।
करोगे जो सुझाए प्रयत्न,,
इनको तुम अपनाकर देखो,
संदीप कहे है ,,अजमाकर देखो
इधर उधर की सब भटकन,
करके स्थिर, यह कहेगा,तन,,
मुझे जरा फुर्सत ही नही है,,
फिर ,अशांत न ,होगा , यह, मन,।।
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(अभी ,इतना ही,,बाकि बाद मे।)
जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण जयश्रीकृष्ण।
संदीप शर्मा।देहरादून। जयश्रीकृष्ण।
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