Skip to main content

बेगैरत हू मै।

 बेशुमार  किस्म का बेशरम हू मै,

टूटता हू,हर कई बार सबसे मै,

फिर भी  मुस्करा देता हू मै ।

पूछो न कितना बेगैरत हू मै,

खा कर चोट  भी अपनो से ,अच्छी तरह, 

उनके फिर भी  काम  संवार आता हू मै,


कहते सब मूर्ख  हू मै,

यह सब कैसे कर कर लेता हू मै।

अब क्या बताऊ  सबको मै,

किश्तो मे जीने की ख्वाहिश, से,

दुख भरी खाली सी अजमाईश, से,

सब की बना कर  पुडियाॅ ,मै,

निगल जाता हू ज़हर की तरह ,सब मै।


जोकि जानता हू कि  मुमकिन  नही ,

खुश कर दे कोई  मुझको यहां। 

सब बैठे है अपने फायदो को,

देगा कौन मुझे  फिर  नफ़ा यहां।

बस जीना है पाकर के यही ,

जो रखना है रिश्ता  कोई  जिंदा  यहां।(2)

######################

All copyright rights reserved n

Originally Scripted by ,

Sandeep Sharma 

Sandeepddn71@gmail.com Sanatansadvichaar.blogspot.com 

Jai shree Krishna g. 


,



Comments

Popular posts from this blog

सीथा सादा सा दिल।

  है बहुत बडी उलझन, जब समझ न कुछ  आता, निकल जाते सब कोई  , बेचारा दिल  ही रह जाता , कितना कोमल  ये है, समझ इससे है आता , जो चाहे जब चाहे, इसको दुखा जाता, ये सीथा सादा दिल, समझ क्यू नही पाता, सब जाते खेल इससे, यह खिलौना  भर रह जाता। ये कितना सच्चा है , समझ तब  हमे है आता, हम मान लेते सब सच, जब कोई झूठ भी कह जाता। कितना ये सीधा है , तब और भी समझ आता। जब देखते छला ये गया, बना  अपना छोड जाता। कितना ये सादा है, पता तब  है चल पाता, जब हर कोई  खेल इससे, दुत्कार इसे जाता। ये सच्चा सीधा सा, कर कुछ भी नही पाता , खुद  ही लेकर दिल पर ये, हतप्रद ही रह जाता। हो कर के ये घायल , समझ नही  है कुछ पाता, क्या खेल की चीज  है ये, या जीवन  जो धडकाता। इतनी बेरहमी से , है धिक्कारा इसे जाता, ये तब भी सीधा सादा, बस धडकता ही जाता। खामोशी से सब सह , जब झेल न और पाता, कहते अब मर ये गया, तो जीवन  तक रूक जाता। यह सीथा सादा दिल , कितना कुछ  सह जाता। देकर के जीवन ये, बस खुद ही है मर जाता।(2) ######@@@@@###### वो कहा है न दिल के अरमान  ऑसुओ मे बह गए, हम वफा करके भी तन्हा रह

बहुत कुछ पीछे छूट गया है।

  बहुत कुछ  मुझसे  छूट  गया है, यू जीवन ही रूठ गया है, थोडी जो  कर लू मनमानी, गुस्से हो जाते है ,कई  रिश्ते नामी। सबके मुझसे सवाल  बहुत  है, सवाल मेरो के जवाब  बहुत है, अपने काम मे बोलने न देते, सब सलाह  मुझको  ही देते, क्या मै बिल्कुल  बिन वजूद हूॅ, या किसी पत्थर का खून हूॅ। क्यू है फिर फर्माइश  सबकी, ऐसे करू या वैसा ,जबकि, कहते है सुनता ही नही है, जाने इसे क्यू, सुझता ही नही है, बिल्कुल  निर्दयी हो चुका हूॅ। पता है क्या क्या खो चुका हूं ? बढो मे जब पिता को खोया, जानू मै ही ,कितना ये दिल रोया, और भी रिश्ते खत्म हो गए, जाते ही उनके, सब मौन हो गए। डर था सबको शायद ऐसा, मांग  न ले ये कही कोई  पैसा, सब के सब मजबूर हो गए, बिन  मांगे ही डर से दूर हो गए, ताया चाचा,मामा मासी, सबने बताई  हमारी   हद खासी, इन सब से हम चूर हो गए  , छोड  सभी से दूर हो गए। फिर  जब हमे लगा कुछ  ऐसा, रिश्ते ही नही अब तो डर काहे का। बस जिंदगी  के कुछ  उसूल  हो गए, बचपन मे ही बढे खूब  हो गए। इक इक कर हमने सब पाया,

घर की याद।

  आती बहुत  है घर की याद,, पर जाऊ कैसे ,बनती न बात,, करता हू जब इक  हल ,,ऐसे ,, आ जाती बात ,,और ,, जाने किधर से ? इक घर सूना हुआ तब  था,, जब मै निकला, लिए रोटी का डर था,। रोटी के लालच को खूब,, उस घर को क्यू गया मै भूल,, भूला नही बस वक्त ही न था,, इस रोटी ने,,न दिया समा था ,। हो गए हम अपनी जडो से दूर,, जैसे पेड  एक खजूर,, पंछिन को जो छाया,,नही,, फल भी लगते है बहुत  दूर।। आती बहुत है याद उस घर की,, कहती इक लडकी फिर, चहकी , पर तब वह उदास  हो गई, बात देखो न खास हो गई है। जिसमे उसका बचपन था बीता, ब्याह क्या हुआ ,वो तो फिर  छूटा,, इक तो जिम्मेवारी बहुत है,, दूजे  पीहर की खुशी का न जिक्र है,, मायके मे ,इज्जत भी तो न मिलती, करे भी क्या मजबूरी  बहुत सी ,, पहले तो चाॅव  वो कर भी लेते थे,, मुझको घर बुलवा भी लेते थे,, जब से हुई भाई की शादी,, बुलावा न आता ,,वैसे शाह जी,, अब तो रस्मे  ,निभाने लगे है,, घर मे कम बुलाने लगे है।। यही  है अब दर्द  का राज,, घर की बहुत  आती है याद। अब सुनो इक सहमी सी बात, जिससे  रोएगे  सबके जज्बात, न भी ,तुम जो रोना चाहो,, तो भी रो देगे