नदी किनारा, प्यार हमारा, चलते रहते,, साथ, सागर तक,, पर मिलते नही ,, कभी भी किसी पथ पर ,, यह है मेरा जीवन सारा,, हमसफर संग,, नदी किनारा। बेखबर नदी,की, बहती धारा, हमारा जीवन , नदी किनारा,, उसकी अपनी निज की ख्वाहिशे,, बेहतरीन ,बेतरतीब, रिवायते,, अच्छा है उस पार ही होना, हमे तो है जीवन को नाहक है ढोना,, सब मे वो एहसान करे है,, जाने क्यो वो साथ चले है,, मजबूरी बंध की कहा जरे है,, बेमन हो,किनारे खडे है,, मुडा भी कई बार उसकी तरफ मै,, वो मुड गई ,,दूसरी तरफ कह, मेरा अपना भी तो जीवन है,, जिसमे उसके अपने रंग है । यहा है जीवन बेजार बेचारा, नीरस उस संग,,नदी किनारा,, चहक तभी ,,जब मतलब होता,, निज अपने का जब काम कोई होता,, इधर के बंधन भारी लगते,, ऐसी चाहत,, जाने क्यू करते,, कैसे किसने उसको पाला,, फिर क्यू न रख पाए, यह सवाल उछाला,, सामाजिक रीत की दे दुहाई,, क्यू नदी को खारा कर डाला,, तंज,है वो ,,दोजख,सा सारा,, जीवन उस संग,,नदी किनारा, मिलन न होगा,,कभी हमारा, क्योकि हम है नदी किनारा।। मै और वो दो विलग है राही,, मजबूरी उसकी देखी सारी,, कभी बैठोगे तो बताऊंगा,, यहा कहा मै सब लिख पाऊंगा,, ब
आती बहुत है घर की याद,, पर जाऊ कैसे ,बनती न बात,, करता हू जब इक हल ,,ऐसे ,, आ जाती बात ,,और ,, जाने किधर से ? इक घर सूना हुआ तब था,, जब मै निकला, लिए रोटी का डर था,। रोटी के लालच को खूब,, उस घर को क्यू गया मै भूल,, भूला नही बस वक्त ही न था,, इस रोटी ने,,न दिया समा था ,। हो गए हम अपनी जडो से दूर,, जैसे पेड एक खजूर,, पंछिन को जो छाया,,नही,, फल भी लगते है बहुत दूर।। आती बहुत है याद उस घर की,, कहती इक लडकी फिर, चहकी , पर तब वह उदास हो गई, बात देखो न खास हो गई है। जिसमे उसका बचपन था बीता, ब्याह क्या हुआ ,वो तो फिर छूटा,, इक तो जिम्मेवारी बहुत है,, दूजे पीहर की खुशी का न जिक्र है,, मायके मे ,इज्जत भी तो न मिलती, करे भी क्या मजबूरी बहुत सी ,, पहले तो चाॅव वो कर भी लेते थे,, मुझको घर बुलवा भी लेते थे,, जब से हुई भाई की शादी,, बुलावा न आता ,,वैसे शाह जी,, अब तो रस्मे ,निभाने लगे है,, घर मे कम बुलाने लगे है।। यही है अब दर्द का राज,, घर की बहुत आती है याद। अब सुनो इक सहमी सी बात, जिससे रोएगे सबके जज्बात, न भी ,तुम जो रोना चाहो,, तो भी रो देगे