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Showing posts from March, 2022

जन्म दिन मुबारक प्रियवर।

  तेरा हर वो प्रणय मिलन,का सुख जो हमारे सुख का एहसास है, लोग जन्मते है इक दफा, हमारा  होता हर बार है। तेरे दिन  सी प्यारी वो रात, जो बन जाती है बेहद ही खास ,  तुम्हरा पा कर मीठा एहसास  बन जाती है हमारे लिए वो  खास, जब तुम होती हो मेरे  पास, मै जन्म नया ही फिर लेता हू। फिर जो होती हो तुम पास देती हो मीठा एहसास    तो जन्म का दिन , तुम्हारा भी मना  लेता हूं। तुम्हारे जन्म  दिन  पर खास प्रियवर। तुम्हरा  सिर्फ  व सिर्फ  तुम्हरा ।  बूझो तो कौन ?

रजोधर्म छूत व अछूत की भ्रान्ति।

  दोस्तो सामाजिक  चेतना के भ्रामक  व आवश्यक  , अनावश्यक मान्यताओ  व भ्रांतियो की मंशा उजागर  करने के संदर्भ मे यह लेख लिए  उपस्थित  हुआ हू।किसी की भावनाओ को कष्ट देने का कोई  मकसद नही है। आप को यदि यह असहज लगे तो आप इसे यू ही नकार दे जैसे एक की हुई  बुराई  हमारी सारी अच्छाइयो पर पर्दा  डाल देती है व रिश्तो मे कड़वाहट भर देती है।व रिश्तो  दरार डाल  सब नकार देती है। प्रश्न है रजस्वला  ,छूत या अछूत। की धारणा ;- दोस्तो देखा गया है कि राजस्वला  नारी को अक्सर  अछूत  या ऐसे व्यवहार  से ही देखा  समझा जाता है ।व शास्त्र  व पौराणिक लेख इस क्रिया के दौरान   नारी को अपवित्र  कहते  पाए गए  है ऐसे कहा  व सुना है मैने। यह क्यू मन ने बहुत बार समझना चाहा कारण  वैसे तो यह सामान्य  प्रक्रिया है पर आओ कुछ  टटोले कोई  सामाजिक  कारण।पहले अध्यात्मिक  बात करते है कि शास्त्र  क्या  कहते है ? एक कहानी है  कि यह क्रिया  क्यू हुई,  चले उस पर चर्चा  करे ।कहते है एक बार देवताओ  ने यज्ञ करने की सोची  पर जब यज्ञ के लिए  वो देव पुरोहित  जी के पास गए  तो किसी व्यस्तता  के चलते उनके  देव पुरोहित  ने इंकार  कर दिया त

शरीर या देह क्या है ?

  जय श्रीकृष्ण  दोस्तो। सब को नमन करते हुए  हम कृष्ण  कृपा से यहाआज सब के  सब जन अपने शरीर के बारे मे समान्य धारणा को समझने की चर्चा को प्रस्तुत  हुए है। हरि इच्छा यही  रही होगी कि इस पर कोई  चर्चा हो व विचार हो क्योकि इच्छा का मूल स्त्रोत  भी तो हरि ही है न है। तो आइए जाने यह देह या शरीर क्या है ? साथियो आप से मै यदि पूछू कि आप कौन हो? तो आप संभवतः  अपने आप को कहने या समझाने के लिए मुझे बताए कि मै संदीप  हू, मधु हू। रिद्म हू।प्रिया हू,। यानि कि नाम बताए ।है न पर मै कहूगा नही यह तो संबोधन  है ।यह एक पता है किसी के निवास  का तो अमूमन  यह गुत्थी न सुलझेगी ,शायद क्लिष्ट हो जाए।तो फिर आप कौन  है तो आप ज्यादा अध्यात्मिक हुए तो कह दोगे आत्मा, परमात्मा  यह उसका अंश।तो फिर  जवाब  गोल मोल हो जाएगा  जैसे हो गया है , तो अब कैसे जाने कि यह देह या श्री मान शरीर  है क्या ? तो जो मेरी  अल्प बुद्धि ने समझा है वो यह कि यह आपका एक निश्चित  स्वरूप है  व लिबास है जो आपने एक रंगमंच  पर एक विशेष  अदाकारी करने या निभाने को रचा है। या ओढा है या पहना है। तो यहा ये तो स्पष्ट हुआ होगा कि शरीर  स्वरू

एक छोटी सी कविता।

  तेरे तस्वुर की, इक तस्वीर  बनाना चाहता हूं। रंग बन कर तुमसे , लिपट जाना चाहता हूं। एक एक शब्द जोड , इक प्रेम माला पिरोना चाहता हूं, जिसमे हर अक्षर से ,मात्रा की तरह, लिपट जाना चाहता हूं। ऐसी ही इक  छोटी सी, कविता बन जाना चाहता हूं। @@@###। संदीप शर्मा।देहरादून से।

राजस्वला भ्रांतियो का खंडन।

 कहते पाए गए है ऐसे कहा व सुना है मैने। एक कहानी कि यह क्यू हुई क्रिया  चले उस पर चर्चा  करे ।कहते है एक बार देवताओ  ने यज्ञ करने की सोची  पर जब यज्ञ के लिए  वो देव पुरोहित  जी के पास गए  तो किसी व्यस्तता  के चलते उन्होने इंकार  कर दिया तो वो अन्य ऋषि के पास जाने को कह चल दिए।जिस ऋषि को कहा उसका बेटा बडा ही विद्वान  था तो उन्होने उसे उन देवताओ  के साथ कर दिया। जब यज्ञ चल रहा था तो देवताओ  ने देखा कि वो ऋषि पुत्र समिधा डालते समय मंत्र चुरा रहा है अर्थात  जो मंत्र वो बोल रहा था मन मे कुछ  और बोल रहा था।जैसे हमलोग की फितरत होती है मन मे कुछ  पर जुबा पे कुछ। तो ऐसे मे इंद्र देव  ने ब्राह्मण  पुरोहित  का वध कर दिया ।अब ब्राह्मण  वध का तो पाप है और यह पाप कौन ले ।तो कहते है इसे ब्रह्मा  जी ने चार भाग  वृक्ष,जल,व नारी एवं भूमि।मे बांट दिया।तो यहा से शुरूआत  हुई  नारी के राजस्वला होने की।अब यह क्यू  व कितनी सच्ची बात है तो प्रमाण  तो नही है मेरे पास पर कहा  क्यू गया कि चिंतन करने पर यह उत्तर मेरे मन ने दिया। पहले तो आपको शास्त्र सम्मत  कह दू।पेड को तने से काटने पर भी उसमे नई पत्तियो आ जाएग

ऋतुराज बसंत।

 आई है ऋतु बसंत, जीवन को देती संदेश अनंत, पीली पीली सरसो की क्यारी,  लग रही जैसे,पीताम्बर ओढे त्रिपुरारी,  कुस्मित पुष्पो के अंदाज को देखा , राधे गाती मल्हार ह्रदय देश का। मलय बसंत की बयार तो देखो, धरा का नववधू सा श्रृंगार तो देखो, हरियाली,है पेडो पर छाई तितलियां भंवरो मे मस्ती छाई, नाच रहे है फूल फूल पर । इतराए है प्रकृति के नूर पर। पतझड़ पत्ते झाड़ रहा है, नए वसन को उतार रहा है। अमराई पर है बौर जो आया प्रिय प्रियतम का मन भरमाया, पंछी चहचहां रहे है, मिलन को गीत वो गा रहे है। युगलो का लगा योग तो देखो, कैसा कर रहा मदहोश है देखो। आलिंगनबद्ध नवयौवन है, करने चले नवीन सृजन है। जिधर देखो उधर ही रस है, प्रेम पर रहा अब किसका बस है। मयूर कोकिल पपीहे की बोली, गौरैया, कर रही ठिठोली, मधुमक्खिया है भीं भीं करती, जैसे नदिया कल कल बहती, चूस रही है कुसुमो का मकरंद,  हर और फैला है आनंद। देखी प्रकृति की छटा निराली, जैसे ब्याहता ने मेंहदी रच डाली, खुशिया बहार मे छाई हुई है, युगलो मे मस्ती छाई हुई है।  खोना न यह कोई भी पल छिन,  जीवन मे रखना उत्साह तुम हरदिन । तभी बसंत खिलता रहेगा, यह नव सृजन

सेक्स नैतिक या अनैतिक कब।

 साथियो आज एक विचित्र  विषय लिए  उपस्थित हुआ हू।विचित्र  इसलिए  क्योकि हमारे समाज  मे इस पर खुलकर  बात करना शोभनीय नही माना जाता जबकि यह अच्छा भी है पर वही आधी अधूरी जानकारी  ,बहुत  बडी समस्याए  भी खडी कर देती है। एक बार खुशवंत सिह जो जाने माने लेखक रहे है उन्हे भी ऐसे ही विषय परकुछ लिखा था।हैरत हुई कि सत्य भी था कि उन्होने लिखा उनकी बेटी को कभी सैक्स  ऐजुकेशन नही मिली पर वो सब कैसे जान गई। सब। तो मुझे वैसे  कोई चिकित्सीय या वैज्ञानिक   अनुभव कहू तो  नही है पर जो  सामाजिक जानकारी है उसके हिसाब  से आपसे इस नाजुक  विषय पर गंभीर  बात रखने की कोशिश  करने जा रहा हू।इस लेख का उदेश्य जरा भी काम वासना नही बल्कि  एक परिचर्चा है। आप सभी जानते है कि संतति की प्राप्ति के लिए  एक निश्चित  प्रक्रिया  से गुजरना होता है जो कि प्रजनन कहलाती है।यह कब व कैसे करने पर नैतिक  ,अनैतिक, या अपराध  की श्रेणी मे आती ही आज इसी पर चर्चा करने जा रहा हू। हो सकता है आप को यह मुद्दा  अति संवेदनशील लगे जो कि वस्तुतः  है भी पर इस पर चर्चा करने मे कोई  गुरेज  नही है कारण हमे अपनी सीमा ज्ञात होनी चाहिए  ताकि अपनी मनोवृति

जिज्ञासा ।

  है इक कौतुक  हर ह्रदय मे, और साथ  है भरपूर सी आशा, कर लू यह भी ,कर लू वह भी , पाने कि सुख है अभिलाषा। कितना कुछ  करने को है, कितनी भीतर है जिज्ञासा, कितने काम पिपासु  है हम , तय करती सफलता व आशा, जैसी वृति व जैसा आचरण दिलवाती हमे सफलता या निराशा। बनो जिज्ञासू,काम पिपासु , यही मंत्र  है हमारी सफलता का। क्षेत्र  चाहे वैज्ञानिक हो आर्थिक,   या फिर हो आध्यात्मिक, जितना ज्ञान  बटोर लोगे, उतनी  अच्छी होगी  हर आशा। जानने को  रहो सदा ही आतुर, और मिटाओ आपनी जिज्ञासा। बस थोडा सा बच के रहना, न करना तांकझांक, अन्यो  की निजता का, सफल सफर  मे  तो हो जाओगे, पर मान न मिलेगा,पाओगे निराशा। सफलता का मूल यही है , कि हो मन मे एक जिज्ञासा। और बताऊ  इक बात खास, हम  बने कयू हम, क्योकि थी जिज्ञासा। ############ संदीप शर्मा।देहरादून से।

हौरी कृष्ण की।

  स्थाई:- देखो आए है कृष्ण मुरारी, हौरी खेलेगी गोपियां सारी, ये तो बलशाली, है गिरिराज धारी, आज खेलेगे हौरी सखा री।(स्थाई) गोप गोपियन संग, देखो,रंगे कैसे संग, इनके नैयना कजरारे, मारे पिचकारी  हा रे, मै तो भीग गई  मस्ती  मे इनकी, अब तो नयनो के तीर न चला रे। देखो आए है कृष्ण  मुरारी,(स्थाई) केशव करो ऐसे कृपा, खेले सब सखी सखा, तेरे रंग मे भीग  जाए, सब इक दफा, हम तो जाए तेरे बलिहारी, गोपियन  संग खेले केशवा  री। देखो आए  है कृष्ण  मुरारी,(स्थाई) बृज बना है मन,देखो राधे अंग संग , मै तो घायल हुआ रे,प्रीत मे  इनके रंग, मेरी कोई तो सुधि लो सखा री, मै तो नशे मे हू परमपिता की, हौरी खेले है कृष्ण  मुरारी,(स्थाई) अभी तो खुली है अंखिया, देख गोपियन  की मटकिया, इन मे रंग है प्रेम का भरा री, इन मे रंग  स्नेह का है भरा री। हौरी खेले है मेरे गिरधारी, हौरी (स्थाई) मची सब तरफ लूट, पी लो कृष्ण नाम का घूंट, इससे छाता है मदमस्त नशा री, सखी आओ पीए, हमसब जरा री , कृष्ण खेले है हौरी सखा री, आओ रिझाए कृष्ण  को सखा री, गाए कृष्ण,,कृष्ण, कृष्ण, कृष्णः री, गाए कृष्ण, कृष्ण, कृष

इश्क न ,बना खत्म दास्तान।

  मेरा ,तेरा,तेरा मेरा,   न इश्क  बना,       हे न इश्क बना।         तंग होती गलियों का,                     था दूर मुकाम,                        हे, था दूर मुकाम। (स्थाई)   जिंदगी ये  क्यू हमारी,      खिली  न वो क्यू बेचारी,          क्यू रह गए  वो सपने,             अधूरे ही सारे  अपने, यही क्या कही कम था,   अश्को मे खारापन था,       सब के खिले थे मोती,          अपना ही पानी कम था।             स्थाई;;;;;;;;;;;; मेरा तेरा ,तेरा मेरा ,   खिला न यकीन,      हे क्यू खिला न यकीन, तेरा मेरा ,मेरा तेरा,    मिला न नसीब,        हे न मिला क्यू नसीब। इक छत के नीचे रह के,    लगे न कभी ठहाके,       रूसवाइयो के वो धागे,           रहे उलझे,सुलझे न ये,        क्यू  ये  जो खालीपन था        भरा न ,जब न कोई गम था ये कैसा नजीर,      हे ये कैसा नजीर,          तेरा मेरा ,मेरा तेरा     मिला न नसीब,         हे,मिला न नसीब। स्थाई;;;;;;;;; किस्मत बुरी नही थी , आदत  मे ही कमी थी ,      मांगे है वो तू मुझसे,          दे न पाई जो खुद से, बीती रात करवट

तत्वदर्शी कौन ?

  जय श्रीकृष्ण  साथियो। अपने स्नेहिल श्रीकृष्ण  जी की कृपा राधे रानी के सानिध्य के साथ हम सब पर  सदैव  बनी रहे।वैसे वो वैसे ही करूणामयी है प्यार लुटाते ही रहते है ।तो साथियो यह सीरीज की विषय वस्तु मुझे कुछ  न कुछ  भीतर से ही प्रेरित  करती है कि इस  पर मै कुछ  न कुछ अवश्य आम शब्दो मे लिखू ,ताकि जन समुदाय  आसानी से सब समझ जाए।व वो दिग्भ्रमित  न हो क्योकि धर्म  कर्म  कोई  बहुत  जटिल प्रक्रिया  नही है  जिसे बताया या उलझाये गया है।सिर्फ  सावधानीपूर्वक  अपने कर्तव्य  पूर्ण  कर परहित  को लाभान्वित  करना ही इसका मूल उदेश्य है।पर साथ ही व्यक्तिगत  विचारो का विकास व उत्थान भी हो यही  इसका परम व एकमात्र  उदेश्य है। बस है क्या  कि यह सब एक कडी के रूप मे आपको  हमको अपनाना होगा ताकि आप वो सब हो जाए जिन्हे आप ढूंढ  रहे है। आपसे पूछू तो किसकी तलाश  है ? तो शायद  आप अध्यात्मिक होते हुए  कहे ईश्वर की , तो किसे पाना है , तो कहोगे ईश्वर को तो सामान्यतः  आमजन मंदिर-मस्जिद  यूं ही तो  जाते है ,ताकि वो उस अदृश्य  शक्ति  को अनुभूत कर सके। उससे अपनी बात कह सके पर कितनी हैरानी की बात है कि वो स्वयं ईश्वर

विचलित मन।

  मन विचलित  यू है, यह दिल की सुनता है नही क्यू है? सब इसके ही तो झमेले है, वर्ना  कहा सब अकेले है। यह सुनता ही कहा है किसी की, बस करता रहता है चित की, ये सोचे भी कुछ  न है जी, क्या होगा गलत क्या होगा सही, इसकी चंचलता को न तुम सुनो , जो हो सही बस वो ही चुनो, तो ये विचलित  भले हो जाएगा, पर दिल से न कल्पाएगा। तब सब अच्छा हो जाएगा, जब सही  और पग तू बढाएगा, जाने कितनी सफलताओ के , तब समंदर  तू लंघ जाएगा। मान तो तेरा बढेगा ही , मर्यादित  इज्जत  भी पाएगा। ######### जय श्रीकृष्ण संदीप  शर्मा। मेरा मन, क्यू तुझे चाहे , क्यू तुझे चाहे , मेरा मन।(गीत के बोल भी है )

मेरी फिक्र कर।

  जिन्दा  लाशो का शहर है ये , तू मौत की दुआ  कबूल मत कर। कफन चाहिए  ही नही किसी को, यहा, तो दफन की भी चिंता, मेरी मान यह कसूर  मत कर । मुर्दे खुद लड रहे है ,खुद से , तू मौत की चिंता  मेरे यार , बेफिजूल सी तो  मत कर । तूने  देखे नही वो मंजर  , जो तेरे सामने है, तू क्यो बांधे है पट्टी  ,ऑखो पर  काली, जब दिखता नही  है नजर भर। यह रात थोडी लंबी होगी, यक़ीनन तो दिन   निकल आने की चिंता, भी जल्दी से  भी मत कर। यहा सब ओढे है, नकाब कोई  न कोई, तो कोई  मजबूर है ,कहे, तो फिक्र  मत कर। जिसके फायदे है जहा तक , वो जुडा है तुझसे,वहा तक, तू गैर होने की  शिकायते , तो   कम से कम मत कर। वजह  ढूंढ  ही लेते है, यहा कोई  न कोई  , हर बात की संदीप, तू बेवजह  की वजह , बेफिजूल भी मत कर। क्या हुआ  खामोश  है,सब, सब और से अब , तू बाहर की छोड और अंदर के शोर  को  सुना कर। तेरी शिकायते खुद ब खुद मिट जाएगी। जो कर रहे है दूजे , तू तो कम से कम , न सब वो कर। चल आ बैठ कर कर ले  , दो" बाते सुकून की ", मै करू फिक्र  तेरी, फिक्र तू मेरी कर।(2) ########## रचियता। संदीप  श

व्रत व्रति व वृत्ति। ,

  दोस्तो जय श्रीकृष्ण। हम सब पर करूणामयी  राधे रानी की असीम  कृपा बरसे।व श्रीकृष्ण  सदा सहाय रहे। आज साथियो मन ने सोचा कि चर्चा की जाए। "व्रत  व्रती  व वृत्ति  " पर, की यह क्या धारणाए  हो सकती है।क्योकि यदि  भूखे रहना ही व्रत है  ,जो कि मुझे नही लगता ऐसा है।क्योकि यदि भूखे रहने से व्रत होता तो आधा पेट  भोजन पाने वाले को आधा फल  तो मिलता ही न।पर ऐसा नही है ।या कभी कभार  भूखे ही सो जाने वाले को पूरा फल तो मिलना ही चाहिए था न। क्योकि वो तो फिर  पूरा ही व्रती ही तो कहलाता है  और यदि वो व्रती  है तो उनको उसका  फल भी अवश्य ही  मिलना चाहिए  था। पर मैने आज  तक ऐसा  होते नही देखा कि कोई  शख्स भूखा रहा हो।व उसका व्रत  माना गया हो। जैसे किसी कथा किस्सो  मे बताया गया है।या हमने पढा। तो फिर  क्या है सखी "व्रत  व्रती की वृत्ति"  की कहानी आइए समझने की चेष्टा  करे।पर याद रहे मेरा निष्कर्ष  न तो अंतिम  है न ही कोई  शास्त्र  से अनुमोदित। यह तो मेरा स्वतः का चिंतन  व विश्लेषणात्मक  बुद्धि  का विवेचन है। आप पूर्णतः इससे सहमत  व असहमत हो सकते है।क्योकि यह विश्लेषणात्मक  व

जीवन मे एक दिन।

  ये जीवन  मे एक दिन  का मुकाम, सच मे है बडा महान, जो सोचा ,तय किया, और बढ चले, तो निश्चित है,उस पल को जीवंत होते देखना, जो सोचा था "जीवन  मे एक दिन। " यू तो हर कोई  मुसाफिर है , मंजिल का अपनी पर पहुँचेगा तभी, जब  स्वेद व श्रम का इत्र बिखेरेगा , खुद  से अनेक दिन, तब आएगा वो प्रतीक्षित सा , जीवन मे एक दिन, कितना कुछ  साकार होने को बैठा है, जीवन का आकार  लेने को समेटा है, जो प्रतिक्षा मे है कि कोई  संवारेगा, हमको पुकारेगा, जीवन  मे एक दिन। इक "उधेड  से बुन""आकार  से निराकार" की यात्रा  का पडाव है , जीवन  का सोचा वो मुकाम, जिस पर चल कर पहुंचना है, जीवन  मे एक दिन। क्या कामना से काम और फिर तमाम । होना ही नही है जीवन मे एक दिन। कितना ,सच मे कितना जो पाया है, जो पा रहे है ,जो पाएगे, का सब मुकाम  है, यह जीवन  का एक दिन। जिसके लिए  आए थे ,वो सोचा क्या, जीवन  मे एक दिन। जो मर कर भी रह जाएगे क्या किया कुछ  वैसा , जीवन  मे एक दिन, हरि भजन ,हरि सुमिरन,जैसा कुछ  न चाहिए, जो कर दिया खुश  किसी जीव को , जीवन  मे एक दिन। बैठो ,सोचो व स्वीका